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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास टिप्पणी-भगवान महावीर के निर्वाण के ६०० वर्ष बाद जैनधर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर नामक दो सम्प्रदायों में विभक्त हो गया। दिगम्बर भी आगे चलकर मूलसंघ, द्राविड़संघ, काष्ठा संघ और माथुर संघ में विभक्त हो गये । १७वीं शताब्दी में भट्रारकों के शिथिलाचार के विरुद्ध दिगम्बरों में तेरहपंथ का आविर्भाव हआ। कल्पसूत्र की पट्टाबली में प्रथमतः मुनिसंघ को गण, शाखा और कुलों में विभक्त होने की सूचना मिलती है । श्वेताम्बर पहले बनवासी और चैत्यवासी नामक दो भागों में विभक्त हुए, फिर क्रमशः ८४ गच्छों में विभक्त हो गये, जिनमें खरतरगच्छ और तपागच्छ प्रधान हैं । श्वेताम्बरों में स्थानकवासी और तेरापंथी मूर्तिपूजक नहीं हैं । स्थानकवासियों को बाईसी सम्प्रदाय भी कहा जाता है। इन सभी संघों, गच्छों और सम्प्रदायों के आचार्यों और लेखकों ने मरुगुर्जर में प्रभत साहित्य लिखा है जिसकी चर्चा ही 'मरुगुर्जर जैन साहित्य' का प्रतिपाद्य विषय है।
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