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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद इतिहास
'जाहि विज्जसिय कुसुम कणियार, वणराइ कंचण मय व कुणइपहिय हियभाण विब्भमुँ । अहिकखहि भुवणयले सयल भिहुण निय-दइय संगमु ।"
'ण' की आवृत्ति, व्यन्जन लोप का आग्रह कवि की भाषा को रूढ़ अपभ्रंश भाषा के रूप में परिवर्तित कर देता है ।
हरिदेव -- इनकी कृति 'मयण पराजय चरिउ ( मदन पराजय चरित) १३ वीं से १५ वीं शताब्दी के बीच की रचना कही जाती है। इसकी भाषा पर भी अपभ्रंश का प्रभाव अधिक है । यह दो संधियों की एक रूपकात्मक कृति है | आप गृहस्थ थे । आपके पिता का नाम चंगदेव और माता का नाम चित्रा था | आपका घराना प्रतिष्ठित था । आपकी छठीं पीढ़ी में नागदेव ने आपकी इसी रचना के आधार पर संस्कृत में 'मदनपराजय' नामक ग्रन्थ लिखा । इसके आधार पर इनके समय का अनुमान १३ वीं शताब्दी ही होता है । इनकी वंशपरम्परा में पठन-पाठन और ग्रन्थ लेखन का क्रम इनसे काफी पहले से चला आया था और इनकी कई पीढ़ी बाद तक चलता रहा । इस रचना में चरित्रपुरी के राजा जिनेन्द्र के द्वारा काम के पराजय की कथा रूपकात्मक शैली में प्रस्तुत की गई है । व्याकरण की दृष्टि से यह ग्रन्थ आधुनिक देश्य भाषाओं के विकास का अध्ययन करने के लिए विशेष महत्त्वपूर्ण है । इसकी भाषा का एक नमूना यहाँ दिया जा रहा है :
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" वज्जघाउ को सिरिण पडिच्छर, असिधारा पाहेण को गच्छइ । को जम करणु जन्तु आसंधइ को भुवदंडइ सोयरु लंघइ । को जम महिस सिंग उप्पाडइ विप्फुरंतु कोदिपामणि तोडड | को पंचाणणु सत्तउ खलवइ । कालकुट्ट को कवलिहिं कवलइ ।"1 भाषा प्रवाहमय और सुबोध है । इसमें पुरानी हिन्दी या मरुगुर्जर के बोल्ल, बुल्ल, ला, आ, लग आदि धातुओं का प्रयोग भाषा विकास की स्पष्ट सुचना देते हैं । इसमें अनेक प्रचलित लोकोक्तियों और मुहावरों का भी प्रयोग किया गया है जिससे भाषा बोधगम्य एव व्यञ्जना समर्थ हो गई है। और बोलचाल की भाषा का आभास देती है । इतना सब होते हुए भी इसे हम स्पष्ट मरुगुर्जर की रचना नहीं कह सकते फिर भी मरुगुर्जर का विकास क्रम देखने के लिए इस प्रकार की रचनाओं के महत्व को अस्वीकार भी नहीं कर सकते ।
१. हिन्दी सा० का वृ० इ० भाग ३ पृ० २७१
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