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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास लिए महत्वपूर्ण हैं तथा वे कवि जैन साहित्य जगत के स्तम्भ हैं। उनकी जानकारी अपेक्षित है। ___सुप्रभाचार्य - आपका निश्चित समय निर्धारित नहीं हो पाया है । कुछ लोग इन्हें ११ वीं और कुछ १३ वीं शती का लेखक मानते हैं। आपकी एक रचना 'वैराग्यसार' ( ७७ पद्य) का उल्लेख मिलता है। इसमें मनुष्य जीवन को दुर्लभ बताते हुए धर्माचरण का उपदेश दिया गया है। कवि दिगम्बर जैन लगता है। देवपूजा में भाव की सच्चाई पर जोर दिया गया है। हिन्दी में प्रचलित छन्द, दोहा, सवैया, कवित्त का प्रयोग किया गया है और प्रायः दोहों में कवि का नाम आया है।
डॉ० हरिवंश कोछड़ ने इसे १३ वीं शताब्दी के आसपास की कृति बताया है। यह योगीन्दु और रामसिंह की परम्परा का अध्यात्मवादी कवि है।
सोमप्रभ या सोमप्रभाचार्य--आपकी प्रसिद्ध रचना कुमारपाल प्रतिबोध की चर्चा पहले की जा चकी है। यह अपभ्रंश की रचना है और सं० १२५१ में लिखी गई थी। इसमें अपभ्रंश का प्रयोग हुआ है लेकिन बीच-बीच में मरुगुर्जर का प्रयोग भी मिलता है, जैसे
"भो आपन्नह मह बयणु, तणु लक्खणिहिं गुणामि ।
इयु बालक अयह घरह, कमिण भविस्सइ सामि ।" निम्नलिखित दोहा मरुगुर्जर का बड़ा साफ-सुथरा उदाहरण है--
"वड रुक्खह दक्षिण दिसिहिं जाइ विदभहिं मग्ग ।
बाम दिसिहि पुण कोसलिहिं जाह रुच्चइ तहि लग्गु ।' कुमारपाल प्रतिबोध का यह दोहा इस बात का प्रमाण है कि इस समय तक मरुगुर्जर का विकास हो रहा था, कवि लोग रूढ़िवश अपभ्रंश का भी काव्य में प्रयोग करते थे, साथ ही हिन्दी, राजस्थानी गुजराती का अभी भेद स्पष्ट नहीं हुआ था अर्थात् यह मरुगर्जर या पुरानी हिन्दी का प्रारम्भिक समय था। इस कृति में ऋतु वर्णन, सूक्ति कथन एवं कथा का औत्सुक्य है। इसका एक अंश जीवमनःकरण संलाप कथा रूपकात्मक शैली का उदाहरण है। इसमें जीव, मन और इन्द्रियों का मानवीकरण करके उन्हें पात्र रूप में प्रस्तुत किया गया है। देह नामक नगरी में पात्रों का संवाद इस रूपक की उल्लेखनीय विशेषता है । इसके अपभ्रंश भाग का गहन अध्ययन प्रो० लुडविग ने किया है। इसकी भाषा कहीं
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