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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुछ गुरु के उपदेश से लिए गये हैं। इसके आदि और अन्त के छन्द इस प्रकार हैं :आदि "पणमवि देवि अंबाई, पंचाणण गामिणि वरदाई । जिण सासणि सांनिधि करइ सामिणि, सुर सामिरिण सदा सोहागिणि ।।
पणमिय गणहर गोयम सामि, दुरित पणासइ तेहनइ नामि ।
वर्द्धमान सामी नइसीस, प्रणम्यां पूरह सयल जगीस ।२।" अन्त "सालिभद्र गुरु संकलीय ओ सविगुरु उपदेश तु ।
पढ़इ गुणइ जे सांभलइओ तेह सब टलइ कलेस तु । हित शिक्षा सम्बन्धी एक पद्य और देखिये :
"घर पच्छोकडि राखे छीडी, वरजे नारिजि वाहिरि हीडी परस्त्री बहिनि भणीनइ माने, परस्त्री वयण म धरजेकाने ।" इ० श्री नाहटा जी ने हितशिक्षा प्रबुद्धरास का उल्लेख तो किया है किन्तु यह भी लिखा है कि यह रास उन्होंने देखा नहीं है, शायद बुद्धिरास और हितशिक्षा प्रबुद्धरास दोनों एक ही रचना का नाम हो । श्री मुनि जिनविजय ने भारतीय विद्या के द्वितीय वर्ष, प्रथम अंक में भरतेश्वर बाहबलि और बुद्धिरास को एक साथ प्रकाशित किया है किन्तु तीसरी रचना के बारे में वे भी मौन ही हैं। अतः ऐसा लगता है कि श्री नाहटा जी का अनुमान ही ठीक है और बुद्धिरास का ही अपर नाम हितशिक्षा प्रबुद्ध रास हो । श्री देसाई ने भी जै० गु० क० भाग ३ पृ० ३९५ पर यह सूचित किया है कि ये दोनों नाम एक ही रचना के हैं अत; शालिभद्र सूरि की दो ही प्रामाणिक रचनायें हैं (१) भरतेश्वर बाहुबलिरास, (२) बुद्धिरास; दोनों ही प्रकाशित हैं। ___ भरतेश्वर बाहुबलि रास की भाषा में अपभ्रंश के प्रयोग--रिसय, जिणेसर नयर, भरह' विज्जीय, मिल्लीय, डुल्लिय आदि के साथ मरुगुर्जर के स्वाभाविक प्रयोग काल, पखेरु, घोरी, आणंद, गयण, विलाउ के साथ तत्सम शब्दों का प्रयोग उसकी उल्लेखनीय विशेषतायें हैं। डॉ० हरीश ने अपनी रचना आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध में लिखा है कि इस रास में हिन्दी शब्द प्रयोग की प्रवृत्ति दिखाई देती है। इसमें प्राचीन गुजराती या प्राचीन राजस्थानी अर्थात् मरुगुर्जर के रूप सर्वत्र परिलक्षित होते हैं।'
१. डॉ. हरीश-आदिकालीन हिन्दी साहित्य शोध पृ० १८०
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