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मरु-गुर्जर जन साहित्य
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प्रभावशाली बन पड़े हैं । जैन रास साहित्य में इतने उत्तम ढंग से अपने लक्ष्य को व्यंजित करने वाला रास इस युग में दूसरा कोई नहीं है। इतना गुण सम्पन्न होते हुए भी इस रास का जैन जगत् में अपेक्षित प्रचार नहीं हो पाया इसीलिए इसकी हस्तप्रतियाँ अधिक नहीं उपलब्ध हो सकी हैं। इसके प्रारम्भ और अन्त के कुछ पद्य दिये जा रहे हैं जिनसे इनकी भाषा का नमूना मिलने के साथ ग्रन्थ और ग्रंथकार के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचनायें प्राप्त होती हैं :आदि “रिसय जिणेसर पय पणमेवी, सरसति सामिणि मनि समरेवि।
नमवि निरन्तर गुरु चरण ।१। भरह नरिंदह तणउ चरित्तो जं जुगी बसुधं चलइ बदीतो,
वार वरिस विहुं वधावइ ।२।"T अन्त के पद्य निम्नलिखित हैं :
'दस दिसिइं वरतइ आण, भउ भरहेसर गहगहइए । रायह ए गच्छसिणगार, वायस्सेण सूरि पाटधर । गुण गणह ए तणउ भंडार, सालि भद्र सूरि जाणीइए । कीघउं ए तीणि चरित्रु, भरह नरेसर रासु-छंदिइं । जो पढ़इ ए वसह वदीत, सो नरो नितुनवनिहिलहइए ।
संवत ए वार एकतालि, फागुण पंचमिउ एउ कीउए ।२०५। इनकी दो अन्य रचनाओं 'बुद्धिरास' और 'हितशिक्षाप्रबुद्धरास' का उल्लेख भी देसाई ने भाग १ पृ० २ पर किया है किन्तु भाग ३ में यह शंका व्यक्त की है कि इनका कर्ता कोई एक ही व्यक्ति है । श्री अ० च० नाहटा ने बुद्धिरास को शालिभद्र सूरि की ही रचना माना है और यह भी लिखा है कि लोकोपयोगी होने के कारण भरतेश्वर बाहुबलिरास से इसका ज्यादा प्रचार हुआ। इसकी प्रतियाँ भी इसीलिए अधिक उपलब्ध हैं । इसमें अबोध लोगों को हितशिक्षा ( सिखामण ) दी गई है । लोकप्रिय होने के कारण इसकी भाषा में परिवर्तन और मूलपाठ में क्षेपकों की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता । अम्बिका देवी और गौतम स्वामी को नमस्कार करके यह रचना प्रारम्भ की गई है। इसमें कई बोल तो लोकप्रसिद्ध हैं और १. श्री १० च. नाहटा-परमरा १५८
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