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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ताल कंसाल मद्दल तिलिम काहला.
केवि वायंति कहहरिस कोलाहला ।१५।। रचना में साहित्यिक सौन्दर्य तो सामान्य कोटि का है किन्तु भाषा विन्यास की दृष्टि से रचना सुन्दर एवं विचारणीय है। जन्म के समय होने वाले मंगल उत्सव और धूमधाम का अच्छा वर्णन अनुप्रास युक्त श्रुतिमधुरभाषा में किया गया है। सिद्ध-गन्धों का गान और अप्सराओं का नृत्य तथा नानाप्रकार के वाद्यवृन्द का कोलाहल जन्मोत्सव के उछाह को व्यक्त करने में पूर्णतया सक्षम लगता है।
शालिभद्र या सालिभद्र सूरि-आप राजगच्छीय श्री वज्रसेन सूरि के पट्टधर थे । आपने अपने गुरु वज्रसेन सूरि कृत 'भरतेहर बाहबलिघोर' के आधार पर अपनी प्रसिद्ध रचना 'भरतेश्वर बाहुबलिरास सं०१२४१ में लिखी। इसमें भी वही कथावस्तु है जो 'घोर' में है। संवतोल्लेख वाली मरुगुर्जर साहित्य की यह संभवतः प्रथम रचना है। इसकी ओजस्विनी भाषा को देखकर पाठक सहज ही इस निष्कर्ष पर पहँचते हैं कि १३वीं शताब्दी के अन्त तक जाते-जाते मरुगुर्जर भाषा काव्य का सक्षम माध्यम बन गई थी। इस रास के सभी वर्णन बड़े सजीव हैं । यहाँ पहुँचकर मरुगर्जर साहित्य अपने विकास का एक चरण पूर्ण कर लेता है। इसमें कुल २०३ पद्य हैं, जिनमें वस्तु, ठवणि, धवल, त्रूटक आदि नाना प्रकार के छंदों का प्रयोग किया गया है। घोर से भी इसकी भाषा अधिक सरल एवं बोधगम्य है। इसके दो संस्करण क्रमशः मुनिजिनविजय और लालचंद गांधी द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुके हैं। भरतेश्वर की सेना के प्रयाण का यह सजीव वर्णन देखिये
'टलटलीया गिरिटंक टोल खेचर झलहलिया, कड्डिय कूरम कंध संधि सायर झलहलिया। चल्लीय समहरि सेस सीसु सलसलीय न सक्कइ,
कंचण गिरि कंधार भरि कमकंपीय कसक्कइ।" यह वीर गाथात्मक काव्यों में अग्रगण्य हैं और इसके कथानक में कहीं शिथिलता नहीं दिखाई देती है । दूतों का संदेश वर्णन, सेना का प्रयाण, युद्ध की भयंकरता और भरतेश्वर तथा बाहुबलि का चरित्र-चित्रण सभी स्थल
१. श्री अ० च० नाहटा-परम्परा पृ० १६७
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