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मरु गुर्जर जैन साहित्य
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विरुद-वर्णन है । द्वितीय कडवक में कुमारपाल एवं उसके दण्डनायक आंबड का उल्लेख है जिसने गिरिनार पर विशाल सोपान-पंक्ति का निर्माण कराया था। तृतीय कडवक में कश्मीर और वहाँ के दर्शनार्थी अजित और रत्न नामक दो बन्धुओं का वर्णन किया गया है जिन्होंने प्रतिमा को स्नान कराते समय प्रतिमा के गल जाने पर मणिमय प्रतिमा प्रदान की थी। चतुर्थ कडवक में अम्बिका देवी के रमणीक स्थल का वर्णन है। अन्त में कवि कहता है कि ग्रहगणों में सूर्य का और पर्वतों में मेरु गिरि का जो स्थान है त्रिभुवन के तीर्थों में वही सर्वश्रेष्ठ स्थान रेवंतगिरि का है। इस प्रकार यह काव्यात्मक और ऐतिहासिक महत्त्वपूर्ण रास आदिकालीन मरुगुर्जर साहित्य के मील का पत्थर है। श्री एन० बी० दिवेटिया ने इसकी भाषा को तत्कालीन प्रचलित भाषा कहा है।'
वीरप्रभ-आप आ० जिनपति सूरि के शिष्य थे । आपने १३वीं शती के उत्तरार्द्ध में 'चन्द्रप्रभकलश' की रचना की। इसमें आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ का जन्माभिषेक वर्णित हैं। इसकी भाषा प्राचीन मरुगुर्जर का रूप पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत करती है जिस पर अपभ्रंश का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है । भाषा के नमूने के तौर पर कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत की जा रही हैं :
"चारु मंदारमालहिं यहु अच्चए, धुणहिं कप्पूर हरिचंदणह चच्चए। सिद्ध गन्धव्व गायंति किन्नर वरा, रंभ पमुहाउ नच्चंति तहि अच्छरा । केवि उप्फलहिं गयणयलि हुल्लुप्फला, केवि हरिसेण गज्जतिजिम वयगला । अद्वमंगल किविलहिहिं किवि चामरा, पहु उभय पासि ढालंति तित्थामरा ।१४। संख बहु संख पडु पडह झल्लरि महा,
ढक्क टंबक्क बुक्का हुडुक्का तहां । 1. N. B. Divatia-The History of the Gujarati literature, P. 8
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