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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास रास का प्रारम्भ मंगलाचरण द्वारा किया गया हैं, यथा"परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि,
भणिसु रासु रेवंतगिरि अंबिक- दिवि सुमरेवि ।१।" रेवंतगिरि पर नेमिजिन स्थापना का मनोहर वर्णन इसमें किया गया है। रचना के समय गुर्जराधीश जयसिंह सिद्धराज और कुमारपाल तथा सोरठ का अधिपति प्रसिद्ध राजा खंगार भी उपस्थित थे । वनराजि की शोभा का वर्णन करने में कवि ने बड़ी अनुप्रासिक शब्दावली का संयोजन किया है । यथा
"करवर करपट करुणतर करवंदी करवीर ।
कुंडा कडाह कयंब कड करव कदलि कंपीर । वेयलु बंजलु व उल वडो वे उस वरण विडंग, वासंती वीरिणी विरह वसियालि वणवंग ।
(प्रथम कडवक का १६-१७ वाँ पद्य) निम्नांकित पद्य में नेमिनाथ का रूपक द्रष्टव्य है
"नीझरण चमर ढलंति, मेघाडम्बर सिरिधरीइं।
तित्थह एसड रेवंदि सिहासणि जयउ नेमि जिणु ।" अर्थात् निर्झर चमर डुलाते हैं, मेघरूपी मेघाडंबर सिरपर धारण किए हुए रेवंतगिरि रूपी सिंहासन पर महाराज नेमिजिन विराजमान हैं। इस रास में प्रवाहमय आलंकारिक भाषा, उत्तम अलंकार योजना, मनोहारी प्रकृति वर्णन और काव्यात्मक सरसता के कारण साहित्यिक सौन्दर्य उत्तम बन पड़ा है। इस सन्दर्भ में एकाध पंक्ति और उद्धृत करना उपयुक्त होगा। मणहर धणवण गहणे रसि रहसिय किंनरा,
गेउ मुहुरु गायतो सिरि नेमि जिणेसरा।" इस प्रकार मरुगुर्जर भाषा के प्रारम्भिक काल की यह काव्यकृति काव्यसौष्ठव की दृष्टि से बड़ी उत्तम रचना है। यह एक खंडकाव्य है। इसके प्रारम्भ में परमेश्वर तीर्थंकर की वंदना के बाद गुर्जर देश में स्थित धोलका के राजा धवलदेव के राज्यमें पोखाड कुलमंडन वस्तुपाल तेजपाल का
१. प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह-रेवंतगिरिरास ।
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