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मरु-गुर्जर जन साहित्य का बृहद् इतिहास
प्रारम्भ होती है। इस प्रकार के काव्य रूप पर श्री नाहटा जी का 'धवल संज्ञक-जैन रचनायें' नामक लेख जो बिहार थियेटर पत्रिका में प्रकाशित है देखा जा सकता है। प्रस्तुत धवल गीत 'ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह' में क्रम संख्या चार पर प्रकाशित है। धवल गीत एक प्रकार का मांगलिक गीत होता है। इसमें बीस पद्य हैं । इसके प्रारम्भिक चार पद्य तो 'भत्तउ' के जिनपति गीत' के प्रारम्भिक चार पद्यों से काफी मिलते हैं। भत्तउ और शाह रयण के गीतों में विषय वर्णन, छन्द, भाषा आदि की दृष्टि से पर्याप्त समानता मिलती है। इसकी भाषा सरल और अपभ्रंश के अनावश्यक प्रभाव से प्रायः मुक्त है । इसके दो प्रारम्भिक पद्य देखिये :--
“वीर जिणेसर नमइ सुरेसर तस मह पणमिय पय कमले युगपति जिनपति सूरि गुण गाइसो भक्ति भर हरसिहि मन रमले ।१। भत्तउ का प्रथम छन्द भी अक्षरशः यही है । दूसरा छन्द देखिएतिहुअण तारण सिव सुख कारण, वंछिय पूरण कल्पतरो। विघन विणासण पाव पणासण दुरित तिमिर भर सहस करो।२।"
यह भी भत्तउ के दूसरे छन्द से पूर्णतया मिलता है । इसमें सुह के स्थान पर सुख और दुरित, तिमिर, कल्पतरु आदि तत्सम शब्दों का प्रयोग अपभ्रंश से मरुगुर्जर की ओर विकास का स्पष्ट सूचक है। जन्म से सम्बन्धित दोहा भत्तउ के गीत से दिया गया था, उनके स्वर्गवास से सम्बन्धित दोहे को शाह रयण के गीत से उद्धृत किया जा रहा है :
"अन्नं दिणंतरे बारसत्त होत्तरे मास आसाढ़ि जिण अणसरीओ। मन्न सुह झाणहि सिय दसमी दिव सहिं पहुतउ सूरि अमरापुरीओ। इसका अन्तिम छन्द देखिये :"एहु श्री जिणपति सूरि गुरु जग पवरु साह रयण इम संथुणइ ए। समरइ जो नर नारि निरन्तर तहाँ घर नवनिधि संपजइ ए ।२०।"]
इसमें जन्म, आचार्य पद, सूरि पद प्रतिष्ठा आदि की तिथियाँ क्रमवार दी गई हैं, अतः इसका साहित्य के अतिरिक्त इतिहास की दृष्टि से भी बड़ा महत्त्व है। आचार्य का स्वर्गवास सं० १२७७ में हुआ था, अतः यह रचना भी सं० १२७७ के आसपास की ही होगी। इससे पता चलता
१. ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह "जिनपति सूरि धवल गीतम्
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