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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य १३३ शती का कवि बताया है किन्तु वे स्वयम् निश्चित नहीं हैं क्योंकि उन्होंने राम के आगे प्रश्नवाचक चिह्न लगा दिया है । अतः इनके नाम से वर्णित आबूरास या नेमिरास का वर्णन पाल्हण के साथ किया गया है अतः रचना का विवरण वहीं देखा जा सकता है । रत्नप्रम या रत्नसिंह सूरि-आप धर्मसूरि या धर्मप्रभाचार्य के शिष्य थे। आपने सं० १२२७ में 'अतरंग सन्धि' नामक सन्धि काव्य की रचना की । यह रचना कुमारपाल के समय पाटण स्थित कुमार विहार में लिखी गई। इस में भव्य और अभव्य के संवाद द्वारा मोह सेना और जिन सेना के युद्ध का रूपक बाँधा गया है। इस युद्ध में जिन सेना द्वारा अन्तरंग रिपुओं पर विजय प्राप्ति की गई है। इसकी भाषा मरुगुर्जर की अपेक्षा अपभ्रंश के करीब है। इसमें कुल ३७ कुलक धर्मसूरि की स्तुति में लिखे गये हैं। इसकी कुछ पंक्तियाँ भाषा का उदाहरण देने की दृष्टि से यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ : "सिरि सिलसूरि गुरु गणहरह पयपंकय पणमेवि, धम्म सूरि सूरिहिं रलियहउ देसण गुण बन्नेवि ।" इसमें रचना काल इस प्रकार बताया गया है : "बारस सत्तत्ती ( वी ) से, सुदा सेक्कारसीह भद्दव। चंद दिणे सामितुमं 'सुरमंदि भवणं जाउ ।३४।" इससे रचना काल १२३७ प्रतीत होता है किन्तु कुमारपाल सं० १२३२ में स्वर्गवासी हो गये, अतः यह रचना सं १२२७ की हो सकती है। भाषा देखने से यह अपभ्रंश की रचना ही प्रतीत होती है। अतः विस्तृत विवरण देना आवश्यक नहीं है। इसका महत्त्व सन्धि काव्य के क्षेत्र में ऐतिहासिक दृष्टि से ही अधिक है। सन्धियों की जो परम्परा मरुगूर्जर में चली उसके सूत्रपात्र का इसे श्रेय है । मरुगुर्जर की सन्धियों में केशीगौतमसन्धि, जयशेखरसूरि कृतशील सन्धि आदि का यथास्थान विवरण दिया जायेगा। शाह रयण--आप खरतर गच्छीय आचार्य श्री जिनपति सूरि के श्रावक शिष्य थे। सं० १२७८ में 'जिनपति सूरिधवल गीतम्' लिखा जो गुरुभक्ति पर आधारित उत्तम रचना है। धवल गीतों की परम्परा सम्भवतः यहीं से १. मो० द० देसाई, जै० गु० कु० भाग १ पृ० ७४ ( अपभ्रंश ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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