________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१३१
( नेमिरास ) आबूरास और नेमिनाथ बारहमासे की भाषा में पर्याप्त समानता दिखाई देती है । 'आबूरास' के प्रथम पद्य की भाषा का बारहमासे की भाषा से मिलान किया जा सकता है । प्रथम पद्य निम्नलिखित है:
"पण विणु सामिणि वाअसरि, अभिनवु कवि रंच परमेसरि । नन्दी वरधनु जासु निवासो, पभणउ नेमि जिणंदह रासो ।"
कवि ने इसका नाम 'नेमिरासो' भी कहा है । जै० गु० क० में राम के नाम पर वर्णित 'आबूरास पाल्हण कृत नेमिरास ही है । दोनों नाम एक ही रचना के लिए हैं और रचनाकार पाल्हण कवि ही हैं । नेमि बारहमासा १३वीं शताब्दी के अन्तिम चरण का महत्वपूर्ण बारहमासा है । इससे अधिक प्राचीन बारहमासे प्रायः अपभ्रंश में लिखे गये हैं जैसे जिनधर्मसूरि कृत 'बारह नावउ' १३वीं शताब्दी की रचना अपभ्रंश में है अतः पाल्हण कृत बारहमासे का मरुगुर्जर के बारहमासों में ऐतिहासिक महत्त्व है ।
पुण्य सागर - ऐतिहासिक जैन काव्य संग्रह में एक रचना 'श्री जिनचन्द्र सूरि अष्टकम्' संकलित है । इस अष्टक में ९ द्विपदियाँ हैं जिसके अन्त में लेखक का नाम आया है
"इय श्री जिनचन्द्र सूरि गुरु संथिणिउ गुणिपुन्न । श्री पुन्य सागर वीनवइ सहगुरु होउ सुप्रन्न ।
--
इससे लगता है कि कवि पुण्यसागर श्री जिनचन्द्रसूरि के शिष्य रहे होंगे । इस अष्टक में उनका जन्म सं० ११९७ और पद प्रतिष्ठा सं० १२०५ बताई गई है । यह रचना सं० १२०५ या उसके बाद की होगी अर्थात् १३ वीं शताब्दी के प्रथम दशक की हो सकती है । इसमें लेखक ने रचनाकाल का उल्लेख स्वयम् नहीं किया है । भाषा भी अपभ्रंश मिश्रित है उसलिए १३वीं के प्रारम्भ की ही यह कृति होगी । यह अष्टक आचार्य के सम्बन्ध में महत्त्वपूर्ण सूचनायें देता है अतः इसका ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद है, ऐसी रचनाओं में साहित्यिक सरसता संभव नहीं होती किन्तु इसी आधार पर उन्हें साहित्य के इतिहास ग्रन्थों से खारिज नहीं किया जा सकता । इसका आदि पद्य निम्नलिखित है :
:–
श्री जिनदत्त सुरिन्द पय श्री जिनचन्द्र मुणिन्द्र,
नर मणि मंडित भास यस कुसल कुमुद वणचन्द । १।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org