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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१२७ किया है जो वादिदेव सूरि के शिष्य थे, जिनके शिष्य प्रद्युम्नसूरि ने वादस्थल पर ग्रन्थ लिखा था।
दो अन्य रचनायें 'स्थूलिभद्र रास' और 'सुभद्रासती चतुष्पदिका' के रचनाकार का पूर्णतया निर्णय नहीं हो पाया है। इन रचनाओं में लेखक का नाम इस प्रकार आया है "जिण धम्मु कहई" या "जिणवर धम्मु करहु ए कविते" । इस पाठ के आधार पर श्री नाहटा जी धर्म को ही इनका लेखक मानते हैं, लेकिन श्री मो० द० देसाई ने कर्ता के सामने प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर इन रचनाओं का विवरण दिया है। स्थूलिभद्र रास ४७ पद्यों की रचना है । यह हिन्दी अनुशीलन वर्ष ७ अंक ३ पर प्रकाशित भी है। इसमें पाटलिपुत्र के राजा नन्द के मन्त्री शकडाल के पुत्र स्थूलभद्र का जीवन वृत्तान्त वर्णित है। वे कोशा वेश्या के यहाँ बारह वर्ष पर्यन्त रहे, किन्तु बाद में जैन साधु हो गये । मुनि अवस्था में गुरु का आदेश पाने पर वे फिर कोशा के घर चौमासा करने गये और अपने कठोर संयम एवं श्रेष्ठ शील का परिचय दिया । रास का आदि इस प्रकार है :"पणमवि सासण अनइ वाएसरि. थूलिभद्दगुण गहणु सुणिबरह जु केसरि।" अन्तिम पंक्ति देखिए :
"बहत काल संजमु पालेहि; चउदह पूरब हियउ धारेहि। - थूलिभद्द जिण धम्मु करेइ, देवलोक पहुत उ जाएवि ।'
दूसरी रचना 'सुभद्रासती चतुष्पदिका' ४२ पद्यों की है । यह हिन्दी अनुशीलन वर्ष ९ अंक १ से ४ में प्रकाशित है। इसमें सुभद्रासती. जो जैन धर्म की प्रसिद्ध सोलह सतियों में श्रेष्ठ थी, का चरित्र चौपइ छन्द में दिया गया है । प्रारम्भ की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं :
"जो फलु होइ गया गिरनारे, जे फलु दीन्हइ सोना भारे ।
जं फल लखि नवकारिहि गुणिहि, तं फलु सुभद्रा चरितहिं सुणिहिं ।' अन्तिम पंक्तियाँ :
‘पढ़हिं गुण हिं जे जिणहरि देहि, ते निच्छइ संसारु तरेहि । सुभद्रा सती चरितु सामलहि, सिद्धि सुक्खु लीलइते लहहि ।४२।१
'मयणरेह' रास सुभद्रासती चतुष्पदिका के साथ ही मयणरेहा सती से सम्बन्धित यह रास भी प्राप्त हुआ था। यह ३६ पद्यों की रचना है
१ मो० द० देसाई ज० गु० क० भ'" ३ पृ० ३९७ २ वही
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