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मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
"जंबू सामिहिं गुणगणह संखेवि बखाणउ।" उस समय राजगृही में श्रेणिक राजा था। उसका पुत्र अभयकुमार बड़ा बुद्धिमान था। श्री वर्द्धमान के नगर में पधारने पर राजा ने उनका सादर स्वागत किया और उनसे आध्यात्मिक पृच्छा करके जंबूस्वामी के विभिन्न भवों का पावन चरित्र श्रवण किया और धर्मलाभ प्राप्त किया। रास का आदि देखिये
"जिण चउवीसह पय नमेवि, गुरु चलण नमेवी । जंबू सामिहि तणउ चरिउ, भवि यहु निसुणेवी। करि सानिधु सरसत्ति देवि, जिम रयउं कहाणउं ।
जंबू सामिहि गुणगणह संखेवि बखाणउं ॥1॥ रास का अन्तिम पद्य आगे उद्धृत किया जा रहा है जिसमें गुरु का स्मरण है
महिंद सूरि गुरुसीस, धम्म भणइ हो धामीऊह । चितउ राति दिवसि, जे सिद्धिहि ऊमाहीयाह । बारह बरस सएहिं कवितु नीपलूँ छासठए (सं० १२६६)
सोलह विज्जाएवि, दुरिय पणासउ सयल संघ ।" इसे गूर्जर की प्राचीन कृति कहा जाता है किन्तु इसकी भाषा का मिलान करने पर इसे जितनी गुजराती की उतनी ही राजस्थानी या हिन्दी की भी रचना कहा जा सकता है । प्रमाणस्वरूप निम्न पंक्तियाँ देखिये -
राज करइ सेणिय नरिंद नरवरहं जु सारो।
तासु तणइ (अति) बुद्धिवंत मति अभयकुमारो।"2। रास में आपने अपने गुरु का नाम महिंद सूरि बताया है । महेन्द्र सू रि नाम के दो जैनाचार्य प्रसिद्ध हैं, प्रथम अंचलगच्छीय धर्मघोष सूरि के शिष्य और सिंहप्रभ सूरि के गुरु थे, जिनका जन्म सं० १२२८, दीक्षा १२३७, आचार्यपद सं० १२६३ और स्वर्गवास सं० १३०९ में हुआ था। इन्होंने सं० १२९४ में शतपदिका नामक ग्रंथ लिखा था । दूसरे महेन्द्र सूरि हेमा. चार्य के शिष्य थे । सं० १२४१ में इन्होंने सोमप्रभ कृत कुमारपाल प्रतिबोध का श्रवण किया था। इन्होंने हेमचन्द्र कृत अनेकार्थसंग्रह पर टीका लिखी थी। श्री मो० द० देसाई का अनुमान है कि शायद यही दूसरे महेन्द्र सूरि धर्म के गुरु थे। उन्होंने एक तीसरे महेन्द्र सूरि का भी उल्लेख १. श्री मो० द० देसाई जै० गु० क० भाग १ पृ० ३
भाग ३ पृ० ३९७ __वही भाग ३ पृ० ३९७
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