________________
१२३'
मरु-गुर्जर जैन साहित्य में ही संभवतः लिखी गई थी। यदि यह अनुमान सही हो तो जगडू १३वीं शताब्दी के कवि ठहरते हैं। श्री अ० च० नाहटा ने इन्हें १३वीं शताब्दी का ही कवि कहा है। उन्होंने इसके सम्बन्ध में यह सूचना भी दी है कि यह .. ६४ पद्यों की रचना है और प्राचीन गुर्जर काव्य संग्रह में प्रकाशित है । यह चौपई छंद में है।1 च उपइ की ६४वीं चौपाई निम्नलिखित है :
"माई तणउ अवसरु धुरि किय उ, चउसठि चउपइया बंधुकियउ। सुद्धइ मणि जे नर निसुणंति, अणंत सुक्खु सिद्धिहि पावंति ।
च उपइ में कवि में रचनाकाल नहीं दिया है। इसमें स्थूलिभद्र' दशार्णभद्र, जम्बूस्वामी, अभयमुनि और जिनवल्लभ आदि आचार्यों को सादर स्मरण किया गया है। लेखक जगडू का नाम ६२वीं चउपइ में आया है यथा
"हासामिसि च उपइ वंधु किय उ, माई तणउ छेहु मइनियउ ।
ऊण उ आगलउ किंपिभणेउ, ‘जगडु' भणइ संधु सयलु खमेऊ।" चौ० ६३वीं में गुरु जिनेश्वर सूरि की वन्दना इस प्रकार की गई है :
'श्री नंद उ समुदा धरि रहइ, नंदउ विहि मंदिरु कवि कहइ । नंदउ जिणेसर सूरि मुणिंदु, जा रवि ऊगउ ऊगउ चंदु ॥" नंदउ शब्द ध्यान देने योग्य है। किसी की मृत्यु के बाद उसके नन्दित होने की कामना करने का कोई तुक नहीं है अतः मेरी समझ में यह चउपइ सं० १३३१ से पूर्व लिखी गई है। अतः इसे १३वीं शताब्दी के अंतिम चरण की रचना माना जा सकता है। इसकी प्रथम चउपइ उद्धृत करके पुनर्विचारार्थ इनकी भाषा का नमूना सहृदयों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ --
"भले भणउं माई धुरि जोई, धम्मह मूलु जु समकित होइ।
समकत बिण जो क्रिया करेइ तातइलोहि नीरू धालेइ ॥" इसके काव्यरस की बानगी के लिए एक और पद्य प्रस्तुत है जिसमें कवि कहता है
"गलइ आउ जिम अंजलि नीरू, सील जो पालइ सो नर धीरू । कपिल नारि पेलइ विन्नाणि, सीलु सुदरसण तणउँ बखाणि ॥२५॥"
अर्थात् अंजलि का पानी जिस प्रकार धीरे-धीरे रिस जाता है वैसे ही आयु निरन्तर क्षीण होती जाती है । इसलिए मनुष्य को शील सदाचार का पालन करना चाहिए।
१ श्री अ० च० नाहटा, परम्परा पृ० १६६ २. सम्यकत्व माइ च उपह प्रा० गु० का० संग्रह पृ० ७८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org