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________________ मरु-गुर्जर जैन साहित्य १२१ मांधाता, नल, सगर और कौरव पाण्डवों का उदाहरण दिया गया है । कवि कहता है कि जीव दया का परिपालन सबको करना चाहिये"जीव दया परिपालिजए, माय वप्पु गुरु आराहिजए ।' अन्त में कवि कहता है 'गउ दसरथु गउ लक्खणुरामु, मांधाता नलु सगरु गओ, गउ कवरव पाण्डव परिवारो ।' अतः सबको अवश्य धर्माचरण करना चाहिये । धर्मपालन करते हुए सुन्दर वस्त्राभूषण धारण करना, पक्वान्न भोजन करना वर्जित नहीं है । कवि कहता है :-- धम्मिहि संपज्जइ सिणगारो, करि कंकण एकावलि हारु । धम्म पटोला पहिरजहि धम्मिहि सालि दालि घिउघोलु । 1 यह ग्रंथ सं० १२५७ के आसोज शुक्ला सप्तमी को ५३ पद्यों में लिखा गया । इसे कवि ने सहजिगपुर के पार्श्वनाथ जिनालय में लिखा । इसमें कवि ने अपना परिचय देते हुए बताया है कि वह जालौर निवासी था अथवा वहाँ उसकी ननिहाल थी और वहीं बस गया था । जीवदयारास मुनि जिनविजय जी द्वारा भारतीय विद्या भाग ३ में प्रकाशित रचना है । इसमें जैन तीर्थों का भी वर्णन है जिनमें सांचौर, नामद्रह, फलबद्धि और जालौर आदि उल्लेखनीय हैं । जालौर में आ० हेमचन्द्रसूरि के आदेश से कुमार पाल ने कुमार विहार नामक पार्श्वनाथ का मन्दिर बनवाया था जिनका वर्णन करता हुआ कवि कहता है: -- "उरि सरसति आसिगु भणइ, नवउ रासु जीवदया सारु । कन्नु धरिवि निसुणेहु जण, दुत्तरु जेम तरहु संसारु । " 2 कवि कहता है कि दुखी प्राणियों की जीवदया भाव से दानादि द्वारा सहायता करनी चाहिये, यथा- 'कवि आसिगु कलिअतरु सोइ, एक समाण न दीसइ कोइ । के नरिपाला परिभमहि, के गय तुरि चंडति सुखासणि । केइ नर कंठा बहहि, के नर वइसहिं रूप सिंहासणि । १. हि० सा० का वृ० इ० तृतीय भाग पृ० २९७ २. मो० द० देसाई, जै० गु० क० भाग ३ खंड १ पृ० ६९५ ९६ और श्री अ० च० नाहटा - राजस्थानी सा० का आदिकाल परम्परा पृ० १५९ For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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