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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास की स्थापना जैन धर्म एवं समाज की निराली विशेषता है। धर्मभावना से अनुप्राणित श्रावक-श्रेष्ठि, मन्त्री और सामन्तों ने धर्म-लाभ और यशलाभ की कामना से पुस्तकों की प्रतियाँ लिखवाकर उन्हें सुरक्षित रखने में अपने धन का सद्व्यय करके साहित्य की महान् सेवा की है। इनके द्वारा भाषा विकास और साहित्यिक परम्परा तथा समाज का अध्ययन सुविधापूर्वक सम्पन्न हो सकता है। मरुगुर्जर जैन साहित्य ने भाषा, काव्य-विषय, काव्यरूप आदि नाना दृष्टियों से परवर्ती साहित्य को अत्यधिक प्रभावित किया है और परवर्ती साहित्य, चाहे वह हिन्दी का हो या राजस्थानी अथवा गुजराती का हो, मरुगुर्जर साहित्य के अमूल्य अवदान के लिए उसका चिरऋणी है। मरुगुर्जर जैन साहित्य का विवरण ( सं १२०१-१३००)
अभयदेवसूरि - आप रुद्रपल्लिय गच्छ के आचार्य थे। आपने सं० १२८५ में जयंतविजय नामक काव्य लिखा जो निर्णयसागर प्रेस में छप चुका है। ___ नवांगी वृत्तिकार अभदेवसूरि की चर्चा पहले की जा चुकी है। मणिधारी जिनचन्द्र सूरि काव्याञ्जलि में पं० बेचरदास ने अभयदेवसूरि के स्वर्गवास का समय सं० ११३९ के पश्चात् बताया है। इन्होंने जन शास्त्र के नव अंगों पर टीका लिखी अतः नवांगी वत्तिकार प्रसिद्ध हुए। इनके पट्टधर श्री जिनवल्लभ सूरि ने मधुकर खरतर शाखा का प्रारम्भ किया था। आपका समय १२वीं शताब्दी निश्चित है किन्तु 'जयन्तविजय' की रचना करने वाले अभयदेव का समय १३ वीं शताब्दी का अन्तिम चरण है। अतः प्रथम अभयदेव ( नवांगी ) का 'जयतिहुयणास्तोत्र' मरु गुर्जर का प्राचीन बीज है किन्तु द्वितीय अभयदेव सुरि कृत 'जयन्तविजय' मरुगुर्जर का पल्लवित वक्ष है। दोनों में सैकड़ों वर्ष का अन्तर है।
अपरप्रभसूरि- ( १३वीं ) के किसी अज्ञात शिष्य ने 'संख वापीपुर मण्डन श्री महावीर स्तोत्रम्' लिखा। ___आसिगु या श्रावक आसिग--आप शान्तिसरि के श्रावक भक्त थे। आपकी तीन रचनाओं का पता चला है (१) जीवदयारास, (२) चन्दनबालारास और (३) शान्तिनाथरास । जीवदया रास ( ५३ गा० ) की रचना सं० १२५७ में हई। इस रास में जीवदया, माता-पिता और गुरु की भक्ति, सत्यभाषण, शुद्ध भाव से दान, तीर्थों में स्नान आदि कर्मों पर बल दिया गया है । धर्म पालन करने वाले राजा दशरथ, भरतेश्वर,
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