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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
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इन्हीं वादिदेव को प्रणाम करके वज्रसेन सूरि ने 'भरतेश्वर बाहुबलि घोर नामक रचना ४५ पद्यों में मरुगुर्जर भाषा में की है जिसे मरुगुर्जर की प्रारम्भिक कृतियों में गिना जाता है । प्रथम अध्याय में इसका उल्लेख किया जा चुका है । आगे चल कर इसी से सम्बन्धित रचना शालिभद्र सूरिने सं० १२४१ में 'भरतेश्वर बाहुबलिरास' नामसे लिखी जिसका यथास्थान विवरण दिया जायेगा । श्री नाहटाजी के अनुसार उत्साह और घोर संज्ञक अभी तक केवल एक एक रचना ही प्राप्त हुई है। घोर की रचना सं० १२२५ के आसपास हुई थी । इसकी भाषा में मरुगुर्जर के प्रारम्भिक प्रयोग प्राप्त होते हैं । धनपाल कृत 'सच्चरिउ महावीर उत्साह' की चर्चा भी पहले की गई है । १५ पद्यों की इस छोटी रचना का महत्त्व ऐतिहासिक और भाषावैज्ञानिक भी है। घोर और उत्साह दोनों रचनायें स्तुति प्रधान हैं । कहा जाता है कि मारवाड़ के साचौर स्थित महावीर की मूर्ति को तोड़ने में महमूद गजनवी असफल रहा तो भक्तों में बड़ा उत्साह हुआ, किन्तु उसके कुल्हाड़ों के चोट का चिह्न आज भी मौजूद है; सम्बन्धित पंक्तियाँ 'उत्साह' से अवतरित की जा रही हैं ।
“ पुणवि कुल्हाड़ा हत्थि लेवि जिणवर पच्छुथऽवि कुल्हाड़ेहि सो सिरि अज्जवि दीसह अंगि घाय, सोहिय तसु धीरह, चलण जुयलु सच्चउरि नयरि पणमहुं तसु वीरहं । 1
इस प्रकार क्रमश: गंगोत्री की तरह कई छोटी-मोटी शाखाओं से मरुगुर्जर की गंगा का उद्गम हुआ ।
तत्कालीन राजनीतिक स्थिति -- सिद्धराज सोलंकी के समय गुजरात में जैन धर्म की खूब तरक्की हुई। उसने हेमचन्द्र कृत सिद्धहैम की प्रतियाँ दूर-दूर भेजवाईं । सिद्धपुर में सिद्धपुर विहार और पाटण में राज विहार का निर्माण कराया । कुमारपाल ने सं० १२१६ में स्वयम् जैन धर्म स्वीकार कर लिया और इसे राज धर्म का दर्जा प्रदान किया । किन्तु (१२ वीं) इस समय तक जनता में लेशमात्र भी भेदभाव नहीं था । कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने लिखा है कि महाराज कुमारपाल के साथ पाटण के मुंजलेश्वर महादेव मन्दिर में हेमचन्द्र भी जाते थे । आचार्य हेमचन्द्र के अतिशय प्रभाव के कारण कुछ विद्वान् इसे हैमयुग भी कहते हैं । निःसन्देह
तणु ताडिउ । अंबाहिउ ।
१. श्री अ० च० नाहटा - राजस्थानी सा० का आदिकाल, परम्परा पृ० १५३ २. मो० द० देसाई, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ३१९
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