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मर-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास यद्यपि इसकी भाषा पर अपभ्रंश की घनी छाया है किन्तु यह सरल एवं सुबोध है । इसमें लय एवं प्रवाह है। संसार समुद्र का काव्यमय वर्णन करता हुआ कवि कहता है -
जर जल बहल रउछु लोह लहरि हि गज्जतउ, मोहमच्छ उच्छलिउ कोव कल्लोल बहंतउ । भयभयरिहि परिवरिउ बंच बहुवेल दुसंचरु गव्व गरुय गंभीर असुह आवत्तभयंकरु । संसार समुदु जु ए रिस उ जसु पुणु पिक्खिवि दरियड़ा,
जिणदत्त सूरि उबएस मुणि तर तरंउउ तरियइ'' भाषा के सहज प्रवाह के लिए निम्न पंक्तियों का नमूना देखिये -
"तव संजम सम नियम-धम्म कम्मिण वावरियउ । __ लोह कोह भय मोह तदव सव्विहि परिहरियउ।" __इस भाषा के आधार पर मैंने इन्हें मरुगुर्जर के आदि कवियों में स्थान देने का प्रयास किया है, आशा है इसका औचित्य विद्वज्जनों को स्वीकार्य होगा। ___ आचार्य की स्तुति में कुछ स्फुट छंद छप्पय आदि भी प्राप्त हैं जिनमें से १६ छप्पयों का एक संग्रह श्री अ० च० नाहटा ने युगप्रधान जिनदत्त सूरि नामक पुस्तक के पृष्ठ ३ पर प्रकाशित किया है। श्री जिनदत्त सूरि के किसी अज्ञात सिष्य द्वारा श्री जिनदत्त सूरि स्तुति पद्य सं० १६) की अपूर्ण प्रति का उल्लेख श्री नाहटा जी ने जैन मरुगूर्जर कवि और उनकी रवनायें भाग १ में पृ० ४० पर किया है । यह रचना जैसलमेर में ताड़पत्रीय प्रति क्र० १५६ से १५७ और १५९ पर अपूर्ण रूप से प्राप्त हुई। ___ ज्ञानहर्ष कृत श्री जिनदत्त सूरि अवदात छप्पय में आपके अनेक चमत्कारों की चर्चा है। इसका समय अनिश्चित है। १३ वीं शताब्दी के प्रसिद्ध जैनाचार्य जगच्चन्द्र सूरि के उग्रतप का आदर करते हुए सं० १२८५ में मेवाड़ के राणा ने इन्हें 'तपा' विरुद प्रदान किया। तब से इनके गच्छ का नाम तपागच्छ पड़ गया। गुजरात के मंत्री वस्तूपाल ने इन का बड़ा सम्मान किया और तभी से गुजरात में तपागच्छ का बड़ा प्रभाव हो गया । इनसे कुछ पूर्व देवसूरि नामक आचार्य ने सिद्धराज की सभा में दिगम्बर साधु कुमुदचन्द्र को वाद में परास्त कर वादिदेव सूरि का विरुद अर्जित किया था। आपने अपने गुरु मुनिचन्द्र सूरि की स्तुति में २५ पद्य की एक रचना अपभ्रंश मिश्रित देशी भाषा में लिखी जो जैन ग्रंथावली में प्रकाशित है । आपने संस्कृत में कई ग्रन्थ लिखे ।
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