________________
११०
मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास आठवीं शती में राजस्थान में महान् आचार्य हरिभद्रसूरि ने हजारों लोगों को जैनधर्म में दीक्षित किया और धूर्ताख्यान आदि ग्रन्थों द्वारा पौराणिक अन्धविश्वासों पर व्यंग्य करके जनता को सद्मार्ग दिखाया । ९ वीं शताब्दी के आचार्य सिद्धर्षि (उपमितिभवप्रपंचकथाकार), ११-१२ वीं में खरतरगच्छ के संस्थापक जिनेश्वरसूरि और जिनदत्तसरि तथा १३ वीं में तपागच्छ के संस्थापक जगच्चन्द्रसूरि आदि आचार्यों का विहार और धर्मप्रचार इन प्रदेशों में हआ। ११ वी १२ वीं शताब्दी से गुजरात में चौलक्य वंश की स्थापना के बाद जैनधर्म की राजसंरक्षण मिल जाने के बाद वहाँ इसका प्रचार-प्रसार बड़ी तेजी से हआ और इन स्थानों पर यह धर्म खब फैला, फूला और फला तथा इन धर्म के सैकड़ों उत्तम विद्वानों ने अपनी अनुपम रचनाओं द्वारा मरुगुर्जर भाषा साहित्य का भंडार भरा। ये दोनों प्रदेश भौगोलिक, सांस्कृतिक दृष्टि से मिलेजुले प्रदेश हैं । जैन मुनि दोनों प्रदेशों में समान रूप से विहार एवं धर्मोपदेश करते थे इसलिए इनकी रचनाओं में गुजराती और राजस्थानी मिश्रित भाषा का प्रयोग स्वाभाविक रूप से हुआ जिसे ही मरुगुर्जर नाम दिया गया है । १२ वीं शताब्दी के कुछ विद्वानों की चर्चा सूत्र रूपमें आगे की जा रही है क्योंकि १३ वीं शताब्दी की साहित्यिक पीठिका इन्हीं की कृतियों पर प्रतिष्ठित हुई है।
१३ शताब्दी की सांस्कृतिक पीठिका-खरतरगच्छ के संस्थापक जिनेश्वर सूरि (१२ वीं शती) और उनकेभ्राता बुद्धिसागरसूरि ने राजस्थान और गुजरात में समान रूप से धर्मप्रचार किया। इन्होंने प्राकृत, संस्कृत तथा अपभ्रंश में कई उत्तम रचनायें की जिनमें प्रमालक्ष्म स्वोंपज्ञ, अष्टक प्रकरणवृत्ति, कथाकोषप्रकरण आदि प्रसिद्ध हैं। आप वर्द्धमान सूरि के शिष्य थे तथा असाधारण प्रतिभा सम्पन्न आचार्य थे। आपने अपने गुरु के साथ गुर्जराधीश दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के शिथिलाचार पर शास्त्रार्थ किया । दुर्लभराज ने इनके पक्ष को 'खरा' मान कर इन्हें खरतर का विरुद प्रदान किया। तब से इनके अनुयायी खरतरगच्छीय कहे जाने लगे । आपकी रचनाओं में मरुगुर्जर के तत्त्व न तो प्राप्त होते हैं और न आप हमारी समय सीमा में पड़ते हैं अतः इनकी भाषा पर विशेष विचार आवश्यक नहीं है। ___ अमयदेव सूरि' (नवाँगी वृत्तिकार)-- श्री श्रीलांगाचार्य ने ११ अंगों पर संस्कृत में टीकायें लिखी थीं किन्तु समय के साथ नौ अंगों की टीकायें लुप्त
१. आप मलधारी अभददेव सूरि से भी भिन्न थे । मलधारी अभयदेव प्रश्न
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org