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मरु-गुर्जर जैन साहित्य
१०९ गुजराती आदि देशी भाषाओं का स्वतन्त्र विकास स्पष्ट रूप से हो गया था फिर भीजैन लेखकों के समग्र साहित्य में धर्मोपदेश की एक प्रधान एवं सामान्य प्रवृत्ति के कारण इसे एक ही शीर्षक के अन्तर्गत रखा जाता है।
गुजरात-राजस्थान से जैनधर्म का सम्बन्ध--अभिलेखीय और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर जैनधर्म का सम्बन्ध इन प्रदेशों से पर्याप्त प्राचीन मालम पड़ता है। वीर निर्वाण सं० ८४ का बालडी का अभिलेख इस बात का सूचक है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ई० पूर्व लगभग पांचवीं शताब्दी में जैनधर्म का प्रवेश राजस्थान में हो चुका था अतः यह माना जा सकता है कि उसी के आसपास इन प्रदेशों में जैनाचार्यों का परिभ्रमण प्रारम्भ हो गया होगा। मथुरा की वाचना के पश्चात् वलभी में हुई आगमों की वाचना से भी यह प्रकट होता है कि ईसा की पाँचवीं शताब्दी तक राजस्थान और गुजरात जैनधर्म के केन्द्र बन गये थे। आचार्य कालक की कथा का सम्बन्ध भी मालवा, गुजरात से लगे हुए सिद्ध प्रदेश से है अतः यह मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती कि पाँचवीं शताब्दी से ही इन प्रदेशों में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार होने लगा था। ५वीं से ७ वीं शताब्दी तक गुजरात राजस्थान में जैनधर्म जनता में जैनाचार्यों द्वारा बड़े अध्यवसायपूर्वक प्रचलित किया जाता रहा। चीनी यात्री ह्वनच्याग हर्ष के समय (७ वीं) भारत यात्रा पर आया। उसने कु-चे-लो अथवा गुर्जर के राजा का उल्लेख किया है और (पि-लो मो-ली) भीनमाल को गुर्जर की राजधानी बताया था । यहाँ का युवक, क्षत्रिय राजा प्रसिद्ध और पराक्रमी था और 'बौद्ध धर्म का वह अनुयायी था ।" स्वयम् हर्ष भी बौद्ध और ब्राह्मण मतों का आदर करता था। उज्जयिनी में महाकालेश्वर के प्रसिद्ध मंदिर से शैवधर्म की उत्तम स्थिति सूचित होती है। उस समय गुजरात में जैन मुनियों की उपस्थिति का उल्लेख चीनी यात्री ने किया है। उसने बौद्ध विद्वान् दिवाकर के आश्रम में अर्हत् (जैनी) मस्करि, श्वेतपट (श्वेताम्बर) केशलुञ्चक और लोकायत आदि को देखा था। कादम्बरी में वाण ने भी मणितारा (हर्षकी छावनी) में जैन अर्हत, पाशुपत, ब्राह्मण आदि को सम्राट के दर्शन की प्रतीक्षा में देखा था। जैनदार्शनिक सिद्धसेन दिवाकर की मालवा गुजरात में ५ वीं शताब्दी में उपस्थिति की सूचना मिलती है।
१. श्री गौरीशंकर चटर्जी 'हर्षवर्द्धन' पृ० १६५ २. वही पृ० ३३१
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