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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पर भी सटीक सही सिद्ध होता है। वस्तुतः इस काल में अपभ्रंश और मरुगुर्जर की सीमारेखा स्पष्ट न होने के कारण कभी-कभी घुस पैठ भी हो जाती थी, परिणामतः एक ही रचना को एक विद्वान् अपभ्रंश की, दूसरा मरुगुर्जर की और तीसरा पुरानी हिन्दी की रचना घोषित कर देता था और वे तीनों ही शायद अपनी दृष्टि से ठीक थे। फिर भी मरुगुर्जर जैन साहित्य की एक प्रारम्भिक सीमा निर्धारित करना आवश्यक होने के कारण हमने अधिकांश विद्वानों द्वारा मान्य वि० १३ वीं शताब्दी को प्रारम्भिक सीमा स्वीकार किया है। अतः इस प्रकरण में वि० १३ वीं शताब्दी के जैनकवियों का विवरण प्रस्तुत किया जायेगा।
आ० रामचन्द्र शुक्ल ने हिन्दी साहित्य के आदिकाल में जैन और बौद्ध साधु-सिद्धों की रचनाओं का उल्लेख किया है जिससे यह निर्विवाद है कि श्रमण संस्कृति के संदेशवाहक इन साधु-सिद्धों ने ही देशी भाषा में साहित्य सर्जन का कार्य सर्वप्रथम प्रारम्भ किया था। इस समय तक साहित्यिक अपभ्रंश बोलचाल की प्रचलित भाषा से दूर हो रही थी। बोलचाल में प्रचलित तत्सम शब्दों का उसमें से सायास बहिष्कार किया जाने लगा था
और उनके स्थान पर प्रचलित देशी शब्दों को भी न प्रयुक्त करके एक निश्चित रूढ़ि के आधार पर शब्दों को गढ़ा और प्रयुक्त किया जाने लगा था जिनका न तो जनप्रचलित भाषा से कोई सरोकार होता था और न वे जनसामान्य को सुबोध होते थे जैसे नगर का नअर, या उपकार का 'उअआर' रूप मल से ज्यादा दुर्बोध बन गया। यह विडम्बना देखिये कि जिन लोगों ने जनता के करीब पहँचने के लिए जनता की भाषा को सर्वप्रथम स्वीकार किया था वे ही रूढ़ि में फंस कर रूढ़ भाषा अपभ्रंश के प्रति आग्रहशील हो गये। इधर कुछ लोग अपभ्रंश का बाध बाँधते रहे किन्तु जनभाषा का प्रवाह प्रबलवेग के साथ मरुगुर्जर, व्रज, मैथिली एवं दक्खिनी आदि जनभाषाओं के रूप में प्रवाहित हो चला।
मरुगुर्जर जैन साहित्य में कालविभाजन का आधार भी प्रवृत्तियों के स्थान पर भाषा का रूप ही है। १३ वीं शताब्दी से १५ वीं शती तक जैन । रचनाओं की काव्य भाषा प्राचीन हिन्दी या मरुगुर्जर अर्थात् जूनीमरु, जूनी गुजराती रही अतः ऐसी रचनाओं को आदिकाल के अन्तर्गत गिना जाता है। १६ वीं से १९ वीं शताब्दी तक की अवधि को मरुगुर्जर जैनसाहित्य का मध्ययुग माना गया है क्योंकि इस कालावधि में यद्यपि हिन्दी, राजस्थानी,
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