________________
द्वितीय अध्याय
मरु-गुर्जर जैन साहित्य (१२०१-१३००)
आदिकाल का निर्धारण
आ० रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि 'जब तक भाषा बोलचाल में थी तब तक वह भाषा या देशभाषा ही कहलाती रही, जब वह भी साहित्य की भाषा हो गई तब उसके लिए अपभ्रंश शब्द का व्यवहार होने लगा।" इस कथन से पिछले अध्याय में निवेदित यह स्थापना प्रमाणित होती है कि १२ वीं शताब्दी के पश्चात् जो अपभ्रंश की रचनायें मिलती हैं वे बोलचाल की जनभाषा की रचनायें नहीं हैं बल्कि परिनिष्ठित साहित्यिक भाषा शैली की रचनायें हैं जिनकी परम्परा १५ वी १६ वीं शताब्दी तक चलती रही किन्तु इनसे देश्य-भाषाओं के क्रमिक विकास का ठीक अनुमान नहीं किया जा सकता बल्कि उनका क्रमिक विकास मरुगुर्जर या पुरानी हिन्दी की रचनाओं के आधार पर ही जाना जा सकता है।
जैनकवि १३ वीं शताब्दी से ही मरुगुर्जर में साहित्य सृजन करने लगे थे। यह अवश्य दिखाई पड़ता है कि कभी-कभी एक ही कवि दोनों प्रकार की भाषाओं का प्रयोग एक ही रचना में या भिन्न-भिन्न रचनाओं में करता था । एक ही समय अलग-अलग कवियों द्वारा इन दोनों भाषाओं में काव्य रचना के अनेक उदाहरण मिलते हैं। हिन्दी क्षेत्र के सुदूर पूर्वी प्रदेश में मैथिल कोकिल कवि विद्यापति ने अपभ्रंश के साथ बोलचाल की देशीभाषा का भी प्रयोग अपनी रचनाओं में किया है। उन्होंने कहा 'देसिल बयान सब जन मिट्ठा, ते तैसन जम्पओं अवहट्टा।' अर्थात् देशीभाषा (बोलचाल की भाषा) सबको मीठी लगती है. इससे मैं देशीभाषा युक्त अपभ्रंश (अवहट्ट) में कविता करता हूँ। मैथिलकोकिल का यह कथन मरुगुर्जर के कवियों
१. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल-हिन्दी सा० का इतिहास, पृ० ५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org