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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
किन्तु जैन अहंत अपने सद्कर्मों द्वारा मनुष्य से भगवंत बनते हैं। ऐसे अहंतों की सगुण ब्रह्म की भांति पूजा-उपासना या भक्ति होती है। इनका साहित्य सच्चे अर्थ में संत साहित्य है। इनका ब्रह्म निर्गुण-सगुण से परे है । गुरु को भगवान् मानना, वाह्याडम्बर का विरोध, चित्तशुद्धि, संसार की असारता का बोध, आत्मा-परमात्मा का प्रिय प्रेमीरूप इस साहित्य में संतसाहित्य की तरह अपने उत्कृष्ट रूप में प्राप्त होता है। __ इनकी कविता में भारतीय संस्कृति की उदारता, समरसता और एकता के दर्शन होते हैं। इन्होंने शान्तरस प्रधान साहित्य की रचना द्वारा साहित्य को उसके उच्चतम आसन पर प्रतिष्ठित किया है और उसके माध्यम से मानव मात्र को संयम, सदाचार का संदेश देकर उसके मनोबल को ऊँचा और चरित्र को आदर्शोन्मुख बनाया है। भक्ति में भक्त मुक्ति नहीं चाहता, किन्तु अद्वैतवादी निर्गुणोपासक आत्मा और परमात्मा का वही ऐक्य 'अप्पा सो परमप्पा' द्वारा घोषित स्वीकृत किया गया है । 'बुद्धों एवं तीर्थंकरों का देवीकरण तथा इन परम्पराओं में विभिन्न देवी-देवताओं का प्रवेश यह सब हिन्दू परम्परा का ही इन पर परवर्ती प्रभाव है।''1 अतः जैन परम्परा में भक्ति आन्दोलन के पश्चात् देवी-देवताओं की भक्ति बहुत कुछ भागवत परम्परा से प्रभावित हुई है किन्तु भक्ति का एक ऐसा रूप जिसके अंतर्गत साधक को अपने प्रयत्न और सद्कर्मों की अलौकिक प्रेरणा मिलती रहे जैन परम्परा में प्राचीनकाल से प्रचलित थी जिस पर आधारित प्रचुर साहित्य मरुगुर्जर में लिखा गया है जिसका यथास्थान आगे विवेचन किया जायेगा।
१. तीर्थकर, बुद्ध और अवतार की अवधारणा, पृ० २५७
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