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मर-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
सच पूछा जाय तो मानव जीवन की समस्त प्रवृत्तियों का उद्गम एवं विलयन शम में उसी प्रकार होता है जैसे अन्ततः सभी नदियों का संगम समुद्र में ही होता है। शान्ति का अधिवास आत्मा है और जब देहादि अनित्य पदार्थों से वह अपने को भिन्न अनुभव करने लगता है तब अहंकार, राग-द्वेष से हीन शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्म को परम शान्ति की प्राप्ति होती है। यहीं आत्मा की शम या आनन्दावस्था है। जैन साहित्य में वैराग्योत्पत्ति के दो साधन बताये गये हैं (१) तत्त्वज्ञान और (२) इष्ट वियोग अथवा अनिष्ट संयोग। इस तरह राग की अन्तिम क्लान्त अवस्था ही वैराग्य है । डॉक्टर भगवानदास, कविवर बनारसीदास आदि विचारक इसीलिए शान्तरस को ही रसराज मानते हैं । आचार्य मम्मट ने 'शान्तोऽपि नवमोरसः' कहकर इसकी स्वतन्त्र सत्ता काफी पहले ही मान ली थी। अभिनव गुप्त ने भी इनका समर्थन किया था। इसके शिल्प का विशद विन्यास धनंजय और विश्वनाथ ने किया।
रसराज शान्त का स्थायीभाव वैराग्य या शम है। तत्त्वज्ञान, तप, ध्यान, समाधि आदि इसके विभाव हैं। वस्तुतः जहाँ न राग-द्वेष, न सुख-दुख, न उद्वेग-क्षोभ है अर्थात् समत्व है वहीं शान्त रस होता है । अतः ऋणात्मक या अभाव का आरोप यथार्थ नहीं है। मनुष्य अन्ततः शान्तिकामी है अतः शान्ति की कामना अभाव की स्थिति नहीं है बल्कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। जीवन में संयम, शान्ति आदि काम्य हैं। १७ वीं-१८ वीं शती में जब हिन्दी के रीति साहित्य में शृङ्गार, नख-शिख वर्णन आदि का बोलबाला था उस समय भी जैन कवि शृङ्गार को मर्यादित करके उसका शान्तरस में पर्यवसान करते थे। शृङ्गार, नख शिख वर्णन भी कम नहीं किया गया है किन्तु वे साध्य नही बल्कि प्रसंग प्राप्त साधन मात्र हैं। खेमचन्द्र कृत गुणमाला चौ० में नायिका गुणमाला का रूप वर्णन या कवि सुन्दर की प्रसिद्ध कृति सीताराम चौ० में गर्भवती सीता का रूप वर्णन बड़ा संयत और मर्यादित है। रत्नकीर्ति कृत नेमिनाथफागु में राजुल की सुन्दरता का मनोरम वर्णन, मालदेव कृत स्थूलिभद्र फागु में कोशा वेश्या की मादक रूप शोभा का वर्णन हृदयग्री ही है जैसे :--
'विकसित कमल नयन बनि, काम बाण बनियारे । खांचइ भमुह कमान मुँ, कामी मृग मन मारिरे । कानहिं कुंडल धारती, जानू मदन की जाली रे । श्याम भुयंगी यू बेणी, यौवन धन रखवाली रे।'
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