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________________ मह-गुर्जर की निरुक्ति ९९ $ पर शान्त रस जीवन की रंगीनियों का शमन करता है इसलिए ये दोनों परस्पर विरोधी हैं | विपुल जैन साहित्य इसका प्रमाण है कि इन दोनों के स्वस्थ समन्वय से ही मानव को चरम लक्ष्य की प्राप्ति हो सकती है । जैन काव्यों में निर्वेद के द्वारा जीवन की मादकता, इन्द्रियलिप्सा और उद्व ेग का शमन होता है न कि जीवन के शुभ पक्ष का दमन । यही इस साहित्य की प्रमुख विशेषता तथा लोक जीवन के लिए उपयोगिता है । प्रायः सभी रचनाओं का विषय धार्मिक और उपदेश प्रधान होने के कारण लेखक रचना के अन्त में नायक-नायिका को विषयों से विरक्त बनाकर निर्वेद ग्रहण करा देता है । कथा का घटना प्रवाह इस प्रकार गठित किया जाता है कि वह चरम पर पहुँच कर शान्तरस में पर्यवसित हो जाता है । अतः सभी जैन काव्य निर्वेदान्त हैं । जैन कृतियों में प्रायः नायक अपने यौवन काल में राज्य प्राप्ति, शत्रु विजय, सुन्दरियों का उपभोग आदि सब करते हैं और इस प्रकार रचना में शृङ्गार, वीर, करुण आदि के लिए कवि को पर्याप्त अवसर मिल जाता है किन्तु अन्त में किसी मुनि के उपदेश से विरक्ति अवश्य हो जाती है । पउमचरिउ में लक्ष्मण को शक्ति लगने पर करुण रस का स्रोत प्रवाहित हो उठता है; किन्तु उसी अवसर का उपयोग कर कवि जीवन की नश्वरता, शरीर की क्षणभंगुरता आदि का मार्मिक उपदेश दे देता है और स्थिति को शम प्रधान बना देता है । राम सोचने लगते हैं कि दुःख सुमेरु की भाँति अचल, अनन्त है और वे निर्वेद की स्थिति में पहुँचकर उपराम हो जाते हैं । धनपाल की प्रसिद्ध रचना 'भविसयत्त कहा में भविसयत्त तक्षशिक्षा और कुरु राज्य के युद्ध में विजयी होकर तमाम सुख ऐश्वर्य का स्वामी और भोक्ता बनता है, किन्तु तभी विमल बुद्धि मुनि के उपदेश से उसे विरक्ति हो जाती है । तत्काल शृङ्गार शान्त रस में पर्यवसित हो जाता है । इसी प्रकार थूलिभद्द रास ( सं० १२६६ ) में धर्म कवि ने कोशा वेश्या द्वारा मुनि के मन में रति के स्थान पर निर्वेद का भाव उत्पन्न कराने में सफलता प्राप्त की है । थूलिभद्र घोर शृङ्गारप्रिय नायक थे पर अन्त में उन्होंने निर्वेद धारण करके महामुनि का स्थान प्राप्त किया । विनयचन्द्र सूरि ने 'नेमिनाथ चतुष्पदिका' में राजुल के वियोग और उसकी विरह वेदना का बड़ा मार्मिक चित्रण किया है किन्तु बारह महीने रोते-रोते अन्त में राजुल को शम की प्राप्ति हो जाती है और विप्रलम्भ शान्त रस के समक्ष आत्मसमर्पण कर देता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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