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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
दिना निर्विकार मनस्त्वं शम" । कवि बनारसीदास ने भी सभी रसों को शान्तरस में समाविष्ट करते हुए उसे प्रधानरस घोषित किया है। उनका कथन है कि दृढ़ वैराग्य धारण करना तथा आत्मानुभव में लीन होना ही शान्तरस का अनुभव है । सुख-दुःखादि से ऊपर उठकर प्राणिमात्र के प्रति समत्व भाव धारण करना शान्तरस की सच्ची स्थिति है । अतः जैनाचार्य एवं कवि शान्त को प्रमुख या अंगीरस मानते हैं । अन्य रसों को अंग मानते हैं ।
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जीवन के प्रति एक विशेष दृष्टिकोण - संसार की नश्वरता, समत्व दृष्टि, अहिंसा, जीवदया, नैतिक संयम के कारण जैन विचारक श्रृंगार को उतना महत्त्व नहीं देते । वह केवल मनुष्य को उत्तेजित करता है और उसके शिक्षा की आवश्यकता नहीं होती अतः ग्रंथों में उसकी विवृत्ति और आवृत्ति की आवश्यकता नहीं मानते । किन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि वे लोग इनका उचित उपयोग नहीं करते या तिरस्कार करते हैं । जैन साहित्य में सभी रसों का औचित्य पूर्वक निर्वाह किया गया है । उदाहरणार्थ बाहुबलिरास (सं० १२४१) में वीररस की उत्तम निष्पत्ति हुई है । इसी प्रकार 'नेमिनाथ चतुष्पदिका विप्रलंभ का उत्तम नमूना है थूलिभद्र फागु, प्रद्युम्नचरित आदि में श्रृंगार, करुण, वीर आदि रसों का सुन्दर निर्वाह हुआ है । इन सभी काव्यों में यथावसर विविध रसों का निष्पादन करता हुआ अंत में कवि सबकी चरम परिणति शान्तरस में ही दिखाता है ।
शान्त रस की प्रधानता और शृङ्गारादि रसों की गौणता के कारण कुछ लोग जैन साहित्य को नीरस, उपदेशपरक मानकर उसकी अवहेलना करते हैं किन्तु उन्हें यह समझना चाहिए कि मनुष्य स्वभावतः शान्तिप्रिय प्राणी है । वह सहज ही शान्तरस की ओर बढ़ता है। दूसरी ओर 'जोग हूँ ते कठिन संयोग परनारी को' जैमी निर्लज्ज पंक्तियों से अश्लीलता और अमर्यादा तथा अशान्ति बढ़ती है रति शृङ्गार के लिए समझाने की कोई जरूरत नहीं पड़ती । कवि भूधरदास ने लिखा है " सीख बिना नर सीखत हैं, विषयानि के सेवन की चतुराई", किन्तु राम या निर्वेद के लिए उपदेशआवश्यक होता है ।
निर्वेद को ऋणात्मक और पलायनवादी कहने वाले विचारक भरत की दुहाई देते हैं और कहते हैं कि उन्होंने इसे रसों में स्वतन्त्र स्थान नहीं दिया अतः जैन कृतियों में रस की स्थिति को सन्दिग्ध मानते हैं । उनका कहना है कि श्रृङ्गार मनुष्य को प्रवृत्तिपरक बनाता है, कामना जगाता है,
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