SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मरु गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास के चरितगान करने वाले रासो ग्रन्थों का वर्ग दूसरे प्रकार का है जैसे पृथ्वीराजरासो, परमालरासो आदि। यह चारण साहित्य का दूसरा नाम ही पड़ गया। ये प्रबन्धात्मक बहद् रचनायें वास्तव में प्राचीन रास परम्परा में नहीं आती हैं। आश्रयदाता के वंश की प्रशंसा, उसके यश-शौर्य का अतिशयोक्तिपर्ण वर्णन इनका मूख्य विषय हो गया, जब कि उपदेशरसायन रास, भरतेश्वर बाहबलिरास आदि प्राचीन रास नामधारी रचनाओं में इस प्रकार की बातों का अभाव है। यह दूसरा रूप अपभ्रश के चरित काव्यों से प्रभावित है । मरुगुर्जर में इन्हें चरिउ, रास दोनों नामों से पुकारा भी जाता था। मरु गुर्जर में १३वीं से १५वीं शताब्दी तक लिखी रास नामधारी रचनायें अधिकतर छोटी हैं और वे सुविधापूर्वक खेली जा सकती हैं । बाद में यहाँ भी बड़े-बड़े रास ग्रन्थ लिखे जाने लगे जो केवल पढ़े जा सकते हैं; गाये या खेले नहीं जा सकते । स्वयंभू ने रास का लक्षण बताते हुए कहा था कि जिस काव्य में धत्ता, पद्धडिया तथा अन्य मनोरम छन्दोबद्ध रचना हो, जो जनमन को मनोहर लगे, वह रासक कहलाती है। मुजरासो, संदेश रासक आदि को मूल भावना रति या प्रेम है। जैनेतर रासो ग्रन्थों में कन्याहरण, शत्रुपराजय, युद्ध, प्रेम आदि का वर्णन मिलता है लेकिन जैनाचार्यों के लिखे रास ग्रन्थ प्रायः नीति और धर्मोपदेश युक्त हैं । रासक, रासउ, रासु, रासो, रासलउ आदि नामों से पुकारे जाने वाली जैन रचनाओं का मुख्य विषय तीर्थंकर, साधू-साध्वी या श्रावक का चरित. गान है जिसने अपने त्याग-तपस्या और नियम-संयम से लोक जीवन को प्रकाशित एवं प्रभावित किया है। इनमें शृङ्गार, वीर गौड़; निर्वेद, शान्त रस प्रधान है। डॉ० काशी प्रसाद जायसवाल, कविराजा श्यामलदान आदि पुराने विद्वानों ने रास शब्द की व्युत्पत्ति रहस्य से; आ० रामचन्द्र शुक्ल ने रसायण से; डॉ० ग्रियर्सन ने राजादेश से; हरप्रसाद शास्त्री ने राजयज्ञ एवं रसिक आदि शब्दों से सिद्ध की है। किन्तु आजकल के अधिकतर विद्वान् इसका सम्बन्ध संस्कृत के रास शब्द से जोड़ते हैं जो श्रीमद्भागवत, हरि- - वंशपुराण, काव्यानुशासन, साहित्यदर्पण आदि ग्रन्थों में शृङ्गार प्रधान गीतों से युक्त नृत्य लीला के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। शारदातनय (१३वीं शती) के प्रसिद्ध ग्रन्थ भावप्रकाश तथा शाङ्ग देव के संगीत रत्नाकर के अनुसार लोक नृत्य लास्य का परवर्ती विकसित रूप रास है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy