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________________ मरु-गुर्जर की निरुक्ति मनवंछिय पुरवउ', अथवा अम्बदेव कृत प्रसिद्ध समरारास की पंक्ति 'एहरासु जो पढ़इ, गुणइ, नाचइ जिणहर देइ' यह सिद्ध करती है कि ये रास केवल पढ़ने के लिए नहीं बल्कि गाने-नाचने और खेलने के लिए रचे जाते थे। उपमितिभवप्रपंचकथा में मंडलावद्ध रास और रिपुदारणरास का उल्लेख है । कृष्ण की रास लीलाओं के बाद रास का प्राचीनतम उल्लेख वाण के हर्षचरित, उद्योतनसरि की कुवलयमालाकथा आदि में मिलता है जिनसे रासकों में मंडलाकार नत्य तथा पदों के गान की सूचना मिलती है। भारतेश्वर बाहुबलिरास और वीसलदेवरासो में उनके नृत्य-नाट्य होने का उल्लेख है। अभिनवगुप्त ने (१००० ई०) में नाट्यशास्त्र की टीका में डोम्बिका, मसृण, रासक, हल्लीसक आदि नृत्य भेदों का लक्षण बताते हुए कहा है कि रासक-चित्र, ताल, लय से युक्त, अनेक नर्तक-नर्तकियों के समह में गाया जाता है। चर्चरी को भी रासक के अन्तर्गत गिना जाता रहा है। विषय की दृष्टि से इसके दो भेद कहे गये हैं--मसृण एवं उद्धत, इसलिए रासक वीर रस प्रधान और शृङ्गाररस प्रधान दोनों प्रकार के पाये जाते हैं। संगीतशास्त्र के प्रसिद्ध ग्रन्थ संगीतरत्नाकर (सन् १२०० ई०) में रासक को एक प्रकार का नत्य बताया गया है । छन्दशास्त्र में अपभ्रश के अनेक मात्रिक छंदों का नाम रास, रासक या रासा भी मिलता है । क्रमदीश्वर के कथनानुसार 'शेषो नागरे रासकादौ' नागर अपभ्रंश में रास की रचना होती थी। इसका क्षेत्र पश्चिमी भारत था, जहाँ रासकों की रचना का प्राधान्य था । नत्य-गेय होने के कारण ये रचनायें लघु आकार की होती थीं। आगे चलकर रास दृश्य काव्य से निकलकर श्रव्य काव्य में शामिल हो गया और इसका वास्तविक स्वरूप काफी बदल गया। राजा या आश्रयदाताओं की चरित चर्चा रासों में होने लगी। इस प्रकार इसके दो वर्ग बन गये; रास या रासक जो नृत्य-गेय रचनायें हैं, आश्रयदाता राजाओं १. 'तीछे ताला रासु पडइ बहुभार पडता, अनई लकुटा रासु जोइइ खेला नाचता।' -प्रो० मंजुलाल मजूमदार 'गजराती साहित्य नो स्वरूप' पृ० ६८ या "सुललित वाणीमधुरी सादि जिण गुण गायंता; तालमानु छन्द गीत भेलू वाजिंत्रा वाजं ता।" -प्राचीन गुर्जर काव्य पृ० १४३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002090
Book TitleHindi Jain Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShitikanth Mishr
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1989
Total Pages690
LanguageHindi, MaruGurjar
ClassificationBook_Devnagari, History, & Literature
File Size11 MB
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