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मरु-गुर्जर जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कुछ प्रचलित काव्य रूपों जैसे रास, फा आदि का थोड़ा विशेष परिचय यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्रबन्ध--गद्य, पद्य या मिश्र शैली में रचित काव्यों को छंद, प्रबन्ध, रास-रासो, चरित्र-चरिउ आदि कहा गया है। प्रबन्ध रासो और रासड़ा या रासक तथा पवाड़ा या पवाड़ों से भिन्न प्रकृति की रचना है। विमलप्रबन्धमरुगुर्जर में प्रबन्ध रचना है। समरारास, पेथड़रास, वस्तुपाल तेजपाल रास आदि यद्यपि 'रास' नाम से अभिहित की गई हैं किन्तु ये वस्तुतः प्रबन्ध ही हैं। गणपति कृत माधवानल, जयशेखरसूरिकृत त्रिभुवनदीपक प्रबन्ध (प्रबोधचिन्तामणि का भाषान्तरण) और पृथ्वीचन्द्र चरित (गद्य पद्य मय) प्रबन्ध काव्य रूप हैं।
संधि-यह आकार-प्रकार में प्रबन्ध काव्य का लघु रूप है। मरुगुर्जर में यह १३वीं शती से ही मिलने लगता है । रत्नप्रभकृत अन्तरंगरास सम्भवतः इस परम्परा का प्रथम काव्य सं० १२३७ में लिखा गया। इसके बाद जिनप्रभसुरिकृत मयणरेहासंधि, अनाथीसंधि, जीवानुशास्तिसंधि आदि १३वीं शताब्दी की संधि रचनायें हैं। जिनप्रभसूरि शिष्य कृत नर्मदासुन्दरी सं० १३२८ और जयदेवगणिकृत भावनासंधि इस विधा की उल्लेखनीय रचनायें हैं। ___चउपइ-संख्या की दृष्टि से रास और चउपइ सर्वाधिक प्रयुक्त काव्य रूप हैं। चउपइ की परम्परा प्राचीन है। यह बाद में भी दीर्घकाल तक चलती रही। रासो का जमाना लद जाने के बाद भी चउपइ का प्रयोग सैकड़ों साल बाद तक होता रहा। चउपइ छन्द में रचित प्रबन्ध रचना को च उपइ या चौपाई कहा जाता है। इसे चतुष्पदिका भी कहते हैं । विनयचन्द्र कृत नेमिनाथ चतुष्पदिका (१४वीं शती), विजयभद्र कृत हंसराजवच्छ राज चउपइ इत्यादि इसके कुछ उदाहरण हैं। छंद नामक काव्य रूप भी इसी प्रकार का है किन्तु इसका प्रयोग अजैन साहित्य में अधिक हुआ है।
रास -ये रास तालियों या डांडियों की लय एवं घूमर के साथ विशेष उत्सवों पर जैन मंदिरों में खेले जाते थे। श्री मद्भागवत के पाँचवें अध्याय का नाम रास-पंचाध्यायी है। यह इसकी प्राचीनता का द्योतक है । नृत संगीत प्रधान यह काव्य विधा अपभ्रंश से मरुगुर्जर में आई, इसका प्रमाण संदेशरासक से मिलता है। विजयसेनसूरिकृत रेवंतगिरिरास (सं० १२८७) की पंक्ति रंगिइ रमइ जे रासु, श्री विजयसेनसूरि विनतीयउ ओ।' या प्रज्ञातिलक कृत कच्छुलीरास की पंक्ति 'जिणहरि दित सुणंत,
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