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मरु-गुर्जर की निरुक्ति इस प्रकार प्रत्येक भाषा-साहित्य और व्यक्ति भी बहुत कुछ विरासत में प्राप्त करता है और कुछ न कुछ अपनी ओर से भी परम्परा में योगदान करता है तथा परम्परा को प्रगतिशील बनाये रखने में सहायक होता है ।
काव्यरूप-जैन अपभ्रश साहित्य काव्य रूपों की दृष्टि से बड़ा विविधतापूर्ण है। मरुगुर्जर के कवियों को अपभ्रश से यह सम्पदा तो मिली ही थी, उन्होंने अपनी निजी सूझबझ से इसकी और समद्धि की। उन्होंने लोकगीतों से देशी धुनों, तों और उर्दू से गजलों को लेकर रचना में उनका प्रयोग करके तथा कभी-कभी एक ही रचना में कई राग की ढालें देकर उसे बड़ा ही संगीतमय तथा विविधतापूर्ण बनाया। जैन काव्यरूपों की विविधता पर प्रकाश डालते हए श्री अ० च० नाहटा ने इन्हें विषय, छन्द, राग, नृत्य, काव्यप्रबन्ध, उपदेश, संख्या, ऐतिहासिक परम्परा, स्तोत्रस्तवन आदि विविध आधारों पर वर्गीकृत किया है।'
छंद की दृष्टि से रास, फागु, च उपइ, वेलि, चर्चरी, छप्पय, दोहा आदि; राग की दृष्टि से बारहमासा, झूलणा, लावणी, वधावा, प्रभाती, गीत और पदादि; नृत्य की दृष्टि से गरबा, डांडिया, धवल, मंगल आदि; कथा प्रबन्ध की दृष्टि से पवाडो, चरित, आख्यान, कथा, संवाद आदि; संख्या की दृष्टि से अष्टक, बावनी, शतक, बहोत्तरी, छत्तीसी, सत्तरी, बत्तीसी आदि नाना भेद हैं। उसी प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से पट्टावली, गुर्वावली, तलहरा, संयमश्री वर्णन आदि; और उपासना की दष्टि से विनती, नमस्कार, स्तुति-स्तवन आदि न जाने कितने काव्य रूप मिलते हैं। काव्यरूपों की ऐसी समृद्ध विविधता शायद ही किसी भाषा-साहित्य में उपलब्ध होती हो जितनी मरुगुर्जर में है।
इन काव्य रूपों का अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया जा सकता है। श्री नाहटा जी ने छंद एवं राग के आधार पर रास, चौपइ, बेलि, चौढालिया, विवाहलो; आराधना रूपों के आधार पर पूजा, सलोक, वंदना, सञ्झाय, नाममाला; कथाबन्ध के आधार पर प्रबन्ध; आख्यान, कथा आदि नाना भेद गिनाये हैं। इनके अतिरिक्त प्रवहण, प्रदीपिका, चुनड़ी आदि अपेक्षाकृत कम प्रचलित रूप भी मिलते हैं । इनमें से कुछ का संक्षिप्त और १. श्री अ० च० नाहटा 'जैन काव्य रूप' ना० प्र० पत्रिका वर्ष १८ अंक ४ २. श्री अ० च० नाहटा 'प्राचीन काव्यरूपों की परम्परा' प्र० भारतीय विद्या
मन्दिर शोध प्रतिष्ठान ।
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