________________
मरु-गुर्जर जैन साहित्य का वृहद् इतिहास ने प्रमुख रूप से मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया। इनमें से दोहे और चौपाई का अपभ्रंश साहित्य में सर्वाधिक प्रयोग हुआ। कड़वकबद्ध शैली में कवि वस्तु वर्णन करते समय विषयानुसार छन्द परिवर्तन करके काव्य प्रभाव उत्पन्न करने में सक्षम होता है।
अपभ्रंश में कवियों ने दो भिन्न-भिन्न छन्दों को मिलाकर (अन्त्यानुप्रास) नये-नये छन्दों का भी निर्माण किया। छप्पय, रड्डा, कुंडलिया, चंद्रायन आदि इसी प्रकार के मिश्र छन्द हैं जिनका अपभ्रंश और मरुगुर्जर में प्रर्याप्त प्रयोग हुआ है। प्राकृत के कवियों ने भी मात्रिक छन्दों का प्रयोग किया था किन्तु मात्रिक छन्दों में तुक या अन्त्यानुप्रास की योजना द्वारा लय और संगीत या गेयता का संचार अपभ्रश कवियों की मौलिक सूझ है जिसका पूरा लाभ मरुगुर्जर और आ० भा० आ० भाषाओं के साहित्यों को मिला। अन्त्यानुप्रास का प्रयोग न संस्कृत में था और न प्राकृत के छन्दों में था, यह परवर्ती काव्य साहित्य को अपभ्रश की अपनी निजी देन है।
इस कथन से यह स्पष्ट है कि अपभ्रंश के जैन कवियों ने यथासंभव सामन्ती संस्कृति और संस्कृत का जूआ उतार फेंकने और भाषा तथा साहित्य को जनसामान्य से जोड़ने का क्रान्तिकारी कदम उठाया जो अपने समय की एक प्रगतिशील प्रवृत्ति मानी जायेगी। इस प्रवृत्ति का परवर्ती मरुगुर्जर साहित्य को जो अवदान प्राप्त हुआ उसके लिए न केवल मरुगुर्जर बल्कि सभी आ० भा० आ० भाषाओं का साहित्य अपभ्रंश का चिरऋणी है। इसलिए आज भी उसके अध्ययन की अधिकाधिक आवश्यकता बनी हुई है । भारतीय वाङ्मय के सुविस्तृत शृङ्खला की अपभ्रंश एक अनिवार्य कड़ी है जिसके अभाव में वह छिन्न-भिन्न हो जायेगी और तमाम सूत्रों को ढूढ़ सकना असंभव हो जायेगा। अलंकार, प्रतीक आदि के उपयुक्त प्रयोगों से इस कविता में काव्यगुण का समावेश संतलित ढंग से हआ है। अतः इन्हें कोरी साम्प्रदायिक शुष्क रचनायें कहकर उपेक्षित रखना अनुचित है।
अपभ्रंश के प्रभाव-स्वरूप मरुगुर्जर में दोहा, चौपाई, सोरठा, कवित्त, सवैया, छप्पय आदि मात्रिक छंदों का अधिक प्रयोग हुआ है किन्तु इसका यह कदापि मतलब नहीं कि वर्णिक छंदों का सर्वथा परित्याग कर दिया गया था। उनका प्रयोग कम हुआ है । मरुगुर्जर साहित्य में विभिन्न प्रकार की ढालों, देशियों और राग-रागिनियों का अभिनव प्रयोग करके संगीतात्मकता उत्पन्न करने का प्रभावशाली प्रयोग मरुगुर्जर की मौलिक सूझ है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org