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जैन न्याय
उत्पन्न होने लगेगें । इसीसे तीसरा पक्ष भी असंगत ठहरता है। चतुर्थ पक्षमें यदि बिना कारणके अर्थ उत्पन्न होता है तो वह सत् रूप है अथवा असत् रूप है ? यदि सत् रूप है तो वह नित्य कहलाया; क्योंकि जो सत् है और कारणोंसे उत्पन्न नहीं होता वह अनित्य नहीं हो सकता । यदि वह असत् रूप है तो यह चांदी है' इस प्रकार विधि रूपसे उसकी प्रतीति क्यों होती है ? क्योंकि घटका अभाव होनेपर 'यह घट है' इस प्रकार विधि रूपसे उसकी प्रतीति स्वप्नमें भी नहीं होती। शायद कहा जाये कि असत् रूप अर्थकी भी किसी भ्रान्तिके कारण सत् रूपसे प्रतीति होती है। तब तो यह विपरीतख्याति हुई न कि अलौकिकार्थख्याति ? अतः अलौकिकार्थख्याति पक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है।
इस तरह सोपमें चाँदीका ज्ञान होने के विषय में अन्य दार्शनिकोंके द्वारा कथित ख्यातियाँ विचार करने पर नहीं ठहरतीं । अतः इसे विपरीतख्याति हो मानना चाहिए।
८. विपरीतार्थख्यातिवाद पक्षका समर्थन
विपरीतख्याति न माननेवाले दार्शनिकोंका कहना है कि इस तरहसे विचार करनेपर तो विपरीतख्याति भी नहीं टिकती। क्योंकि उसमें भी यह प्रश्न उठता है कि विपरीतख्यातिका आलम्बन क्या है-चाँदी अथवा सीप ? यदि चाँदी है तो यह असख्याति हुई, न कि विपरीतख्याति; क्योंकि उसमें असत् चाँदीका प्रतिभास होता है । शायद कहा जाये कि अन्य देश और अन्य कालमें जो चांदी सत् है वही सीपमें प्रतिभासित होती है, अतः उक्त दोष नहीं आता । तो यह चाँदी है' ऐसा ज्ञान नहीं होना चाहिए, क्योंकि जो चाँदी उस देश और उस कालमें वर्तमान नहीं है और जिसका चक्षुके साथ सन्निकर्ष भी नहीं है, उसका चाक्षुष ज्ञान नहीं हो सकता। यदि ऐसे पदार्थका भी चाक्षुष ज्ञान होने लगे तो सब पदार्थोंका चाक्षुष ज्ञान होने लगेगा और इस तरह चाक्षुष ज्ञान समस्त विश्वको ग्रहण कर सकेगा। अतः चाँदो तो इस ज्ञानका आलम्बन नहीं है। और न सीप ही है; क्योंकि वह ज्ञान चाँदीके आकारके रूपमें उत्पन्न होता है। . जो ज्ञान अन्यके आकार हो उसका आलम्बन अन्य नहीं हो सकता। तथा यदि सीप ही इस ज्ञानका आलम्बन है तो उसे भ्रान्त कसे कहा जा सकता है ?
विपरीतख्यातिमें उठायी गयी उक्त विप्रतिपत्तियोंका समाधान इस प्रकार है-उक्त ज्ञानका आलम्बन चाँदी ही है, किन्तु इतने मात्रसे इसे असख्याति नहीं कहा जा सकता । असख्यातिमें तो सर्वथा असत् अर्थका प्रतिभास माना जाता
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