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________________ प्रमाण હરે. असत् है अथवा उभय रूप है ? सत् तो हो नहीं सकता, क्योंकि यदि वहाँ चाँदी होतो तो उत्तरकालमें बाधक ज्ञान उत्पन्न न होता और चाँदीका ज्ञान अभ्रान्त कहा जाता । असत् भी नहीं हो सकता; क्योंकि आकाशकुसुमकी तरह असत्का प्रतिभास नहीं होता । उभय रूप भी नहीं हैं, क्योंकि उभय रूप माननेमें उभय पक्ष के दोष आयेंगे तथा सत् और असत् ये दोनों एक रूप नहीं हो सकते । अतः ज्ञानके द्वारा दर्शित अर्थको सत् असत् अथवा उभयरूपसे कहना शक्य नहीं है, अतः इसे अनिर्वचनीयार्थख्याति कहते हैं । यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो प्रतिभासमान है उसे अनिर्वचनीय नहीं कहा जा सकता । जो सत् है उसका सत् रूपसे ग्रहण और कथन होता ही है और जो असत् है उसका असत् रूपसे ग्रहण और कथन होता है । यदि ऐसा न हो तो घट-पट आदि और उनका अभाव भी अनिवर्चनीय हो जायेगा । तथा यदि उक्त विपरीत ज्ञानको आप अनिर्वचनीय मानते हैं तो 'यह चांदी है' इस प्रकारका ज्ञान और शब्द व्यवहार हो नहीं सकता । पहले सत् रूपसे देखी हुई चांदी देश आदिका व्यवधान होने पर भी समानता के कारण सीपमें प्रतिभासित होती है | अतः उसका 'यह वह है' इस रूपसे उल्लेख होना ही वचनोयता है और उसका उल्लेख न होना हो अवचनीयता है, अतः अनिर्वचनीयार्थख्याति पक्ष भी ठीक नहीं है । ७. अलौकिकार्थख्यातिवाद कुछ दार्शनिक इसे अलौकिकार्थ ख्यातिके रूप में मानते हैं । उनका कहना है कि चूँकि उक्त प्रकार से विचार करनेवर अन्य ख्यातियाँ ठीक नहीं बैठतीं, अतः इसे अलौकिकार्थ ख्याति मानना चाहिए । अलौकिक अर्थात् अन्तः अथवा बाह्यरूपसे जिसके स्वरूपका निरूपण नहीं किया जा सकता ऐसे अर्थकी ख्यातिका नाम अलौकिकार्थख्याति है । यह पक्ष भी विचारसह नहीं है; क्योंकि अर्थके अलोकिकपने से आपका क्या आशय है ? अर्थका अन्य रूप होना, अन्य क्रिया करना, अन्य कारणसे उत्पन्न होना अथवा बिना कारणके उत्पन्न होने का नाम अलौकिकपना है ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि सत्यका जैसा रूप प्रतिभासित होता है वैसा ही रूप असत्यका भी प्रतिभासित होता है । यदि अन्य रूपसे प्रतिभासित होनेका नाम अलौकिकार्थख्याति है तो विपरीतख्यातिका ही नाम अलौकिकार्थख्याति हुआ । दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है । यदि अन्य अर्थ अन्य अर्थका काम करने लगेगा तो उसके लिए अन्य कारणोंकी परिकल्पना करना ही व्यर्थ हो जायेगा, फिर तो एक ही कारण से सब कार्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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