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________________ जैन न्याय ठीक नहीं है, 'जिस रूपसे प्रतिभास होता है वैसा ही अर्थ है' ऐसा मानना समुचित नहीं है; क्योंकि ऐसा माननेसे भ्रान्तताका अभाव हो जायेगा। अतः 'यह चांदी है' यह ज्ञानका हो आकार है जो अनादिकालीन अविद्या वासनाके बलसे बाहरमें प्रतिभासित होता है । इसलिए इसे आत्मख्याति कहना हो समुचित है । योगाचारका यह कथन भी समुचित नहीं है; यतः जब यह सिद्ध हो जाये कि ज्ञान अपने स्वरूपमें ही निष्ठ होता है और अर्थका आकार धारण करता है तभी आत्मख्याति सिद्ध हो सकती है। किन्तु यह सिद्ध नहीं है। इसका विचार यथास्थान किया जोयेगा। तथा यदि सभी ज्ञान अपने आकार मात्रको ग्रहण करते हैं तो उनमें भ्रान्त और अभ्रान्तका भेद तथा बाध्य-बाधकपना नहीं बनता क्योंकि वैसी स्थितिमें कोई भी ज्ञान व्यभिचारी हो नहीं सकता। तथा यदि 'यह चांदी है' यह ज्ञानाकार ही है तो इसका संवेदन 'मैं चांदी' इस रूप में स्वात्मनिष्ठ ही होना चाहिए न कि 'यह चाँदी' इस प्रकार बहिनिष्ठ । क्योंकि जिसका स्त्रात्मरूपसे संवेदन होता है, उसका बहिनिष्ठ रूपसे संवेदन नहीं होता, जैसे ज्ञानके स्वरूपका । किन्तु आत्मख्यातिवादीके मतमें चाँदी वगैरहका आकार स्वात्मरूपसे जाना जाता है अतः उसका बहिःस्थित रूपसे बोध नहीं होना चाहिए । यदि अनादि अविद्या वासनाके कारण स्वात्मनिष्ठ ज्ञानाकारका प्रतिभास बहिस्थित रूपसे हुआ मानते हैं तब तो यह विपरीतख्याति ही हुई; क्योंकि ज्ञानसे अभिन्न चाँदी वगैरहके आकारका विपरीत रूपसे अर्थात् बहिःस्थित रूपसे अध्यवसाय होता है। तथा यदि योगाचार बाह्य अर्थोंको ज्ञानका विषय नहीं मानता तो जैसे सीपमें 'यह चांदी है' इस प्रकार चाँदीके उल्लेखपूर्वक ज्ञान होता है वैसे 'यह नील है' इस प्रकार नीलके उल्लेखपूर्वक ज्ञान क्यों नहीं होता? कोई नियामक तो है नहीं ? यदि अविद्या वासना नियामक है तो अमुक देश वगैरहमें ही ऐसा ज्ञान क्यों होता है ? शायद कहें कि अविद्याका यही माहात्म्य है कि देश आदिके नियमके असत् होने पर भी वह ज्ञानमें उसकी प्रतीति करा देती है। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं हैं, क्योंकि ऐसा माननेसे तो असतख्यातिवाद ही सिद्ध होता है। अत: आत्मख्याति पक्ष भी समुचित नहीं है। ६. अनिर्वचनीयार्थख्यातिवाद ब्रह्माद्वैतवादी विपर्ययज्ञान में अनिर्वचनीयार्थख्याति मानते हैं। उनका कहना है--सीप आदिमें जो चांदी आदिका आकार प्रतिभासमान होता है वह सत् है या Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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