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प्रमाण
४. प्रसिद्धार्थख्यातिवाद
'सांख्यदर्शन विपर्ययज्ञान में प्रसिद्धार्थख्यातिवादको मानता है। उसका कहना है-विपर्ययज्ञानमें प्रतीति सिद्ध अर्थका ही प्रतिभास होता है। शायद कहा जाये कि 'विचार करने पर उस अर्थका असत्त्व सिद्ध होता है' किन्तु यह कथन संगत नहीं हैं, क्योंकि प्रतीतिके सिवा और विचार है क्या। और विपर्ययज्ञानमें प्रतिभासित अर्थ प्रतीतिसे अबाधित है । अतः जो अर्थ प्रतीति सिद्ध हो उसका विचार करना हो अयुक्त है। हथेलीपर रखे हुए आँवलेका अस्तित्व भी प्रतीतिपर ही निर्भर है। वही प्रतीति विपर्ययज्ञानके विषय में भी है। शायद कहा जाये कि मरीचिकामें जलका प्रतिभास होनेपर जब ज्ञाता उस स्थानपर पहुँचता है तो वहां जलका प्रतिभास नहीं होता अतः वहाँ जलका असत्त्व ही ठहरा। यह कथन भी युक्त नहीं है क्योंकि यद्यपि उस स्थानमें जानेपर वह अर्थ नहीं रहता, किन्तु जिस समय वहाँ जलका ज्ञान हुआ उस समय तो है ही। यदि उत्तरकालमें उस अर्थका अभाव होनेसे प्रतिभास कालमें भी अभाव माना जायेगा तो ऐसी स्थितिमें बिजलीका अपने ज्ञान कालमें भी अभाव सिद्ध होगा; क्योंकि बिजली एक बार चमककर लुप्त हो जाती है। इसलिए यह प्रसिद्धार्थख्याति ही है। ___ सांख्यका उक्त मत अविचारित है; क्योंकि ऐसा माननेसे भ्रान्त और अभ्रान्त प्रतीतिका व्यवहार ही नष्ट हो जायेगा; क्योंकि जब प्रत्येक प्रतीति यथावस्थित अर्थको ग्रहण करती है, तब 'कोई प्रतीति भ्रान्त और कोई अभ्रान्त' यह व्यवस्था बिना हेतुके कैसे बन सकती है ? ऐसा करनेसे तो स्वेच्छाचार ही कहलायेगा । तथा मरीचिकामें भी प्रतिभास कालमें यदि जलका अस्तित्व रहता है तो उत्तरकालमें जलके नहीं होनेपर भी कमसे कम जलके चिह्न-जमीनका गोला वगैरह होना-तो अवश्य ही मिलने चाहिए; क्योंकि बिजलीकी तरह जलका भी तत्काल निरन्वय विनाश नहीं देखा जाता। अतः प्रसिद्धार्थख्याति पक्ष भी श्रेयस्कर नहीं है। ५. मात्मख्यातिवाद
बौद्ध दर्शनको योगाचार शाखाके अनुयायो विपरीत ज्ञानको आत्मख्याति मानते हैं । उनका कहना है-सीपमें 'यह चाँदो है' इस प्रकार चांदोका प्रतिभास होता है। किन्तु बाहरमें स्थित चांदीका यह प्रतिभास बाधक प्रत्ययके कारण
१. न्या० कु० पृ० ६१ । प्रमेयक० मा०, पृ० ४६-५० । २. न्या० कु०, पृ० ६२ । प्रमेयक० मा०, पृ० ५०-५१ । ११
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