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________________ ८० जैन न्याय बाधक ज्ञानसे उस वस्तु रूपका अर्थका धर्म होना बाधित हो जाता है । अतः उक्त 'यह चांदी है' इस ज्ञानमें असत्का ही प्रतिभास होता है। इसलिए उसे असख्याति कहते हैं। __ असख्यातिवादियोंका उक्त कथन भी विचारपूर्ण नहीं है। क्योंकि आकाशकुसुमकी तरह असत्का प्रतिभास होना ही सम्भव नहीं है। तथा असत् भी हो और उसका प्रतिभास हो, ये दोनों बातें विरुद्ध है। पदार्थों का प्रतिभासमान होना ही उनका अस्तित्व है। क्या सर्वथा असत् गधेके सींग-जैसो वस्तुओंका स्वप्न में भी प्रतिभास होता है ? तथा यदि भ्रान्त ज्ञानोंका विषय असत् माना जायेगा तो भ्रान्तियों में जो अनेकरूपता देखी जाती है, उसका अभाव हो जायेगा, क्योंकि उस नानारूपताका कोई कारण ही नहीं रहता। आशय यह है कि असख्यातिवादो न तो ज्ञानमें वैचित्र्य मानते हैं और न अर्थमें वैचित्र्य मानते है तब उस वैचित्र्यके निमित्तसे जो अनेक प्रकारकी भ्रान्तियां होती हैं, वे कैसे हो सकेंगी? _ ऐसे ज्ञानोंमें अर्थक्रियाकारित्व नहीं देखा जाता, इस आपत्तिपर जैनोंका यह प्रश्न है कि कौन-सा अर्थक्रियाकारित्व ऐसे ज्ञानोंमें नहीं पाया जाता-ज्ञानसाध्य अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता अथवा ज्ञेयसाध्य अर्थक्रियाकारित्व नहीं पाया जाता? प्रथम पत्र में तो 'यह चाँदी है' इस रूपसे प्रतिभासित होनेवाले वस्तुस्वरूपका सर्वया असत्त्व सिद्ध नहीं होता, हां वह ज्ञानका धर्म नहीं है, इसलिए आप उसे असत् कह सकते हैं, न कि सर्वथा असत् । क्योंकि यदि एक वस्तु दूसरी वस्तुका काम न कर सके तो, इससे उस वस्तुका असत्त्व सिद्ध नहीं होता, अन्यथा घट पटका काम नहीं कर सकता, इसलिए घटके भी असत्त्वका प्रसंग उपस्थित होगा। अतः प्रथम पक्ष ठीक नहीं है। दुसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि मरीचिकामें जलका ज्ञान होनेपर जलके निमित्त से होनेवाली अर्थक्रिया-जल पीनेकी इच्छा, उसमें प्रवत्ति आदि होती ही है। इसपर आप यह पूछ सकते हैं कि फिर उस ज्ञानको भ्रान्त क्यों कहा जाता है ? इसका उत्तर यह है कि उसमें स्नान आदि नहीं किया जा सकता । वास्तवमें अर्थक्रिया दो प्रकारकी होती है-एक तो अर्थमात्रसे होनेवाली और एक सच्चे अर्थसे होनेवाली । वस्तुको देखकर उसकी अभिलाषा आदि होना, अर्थमात्रसे होनेवाली अर्थक्रिया है और स्नान, पान आदि कर सकना, सत्य अर्थसे होनेवाली अर्थक्रिया है। अतः जो ज्ञान इस दूसरे प्रकारकी अर्थक्रियाको कर सकने में समर्थ अर्थको ही ग्रहण करता है, वही ज्ञान अभ्रान्त होता है, दूसरा नहीं। अत: असख्याति पक्ष भी नहीं बनता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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