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प्रमाण
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२. अख्यातिवाद ___ चार्वाक' मतानुयायो विपर्ययज्ञानको अख्यातिके रूपमें मानते हैं। उनका कहना है-सीपमें 'यह चांदी है' इस ज्ञानका विषय चाँदी तो नहीं है, अन्यथा फिर इस ज्ञानको भ्रान्त कैसे कहा जा सकता है ? तथा 'चाँदीका अभाव' भी इस ज्ञानका आलम्बन नहीं है; क्योंकि चाँदीका अस्तित्व मानकर ही वह ज्ञान प्रवृत्त होता है। इसीलिए सीप भी इस ज्ञानका आलम्बन नहीं है। शायद कहा जाये कि चांदीके रूप में सीप ही इस ज्ञानका आलम्बन है, किन्तु यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि अन्यका अन्यरूपसे ग्रहण होना नहीं देखा जाता; क्या कहीं घटरूपसे पटका ग्रहण होता देखा गया है ? इसलिए इस ज्ञानमें कुछ भी प्रतिभासमान नहीं होता । इसीलिए इसे अख्याति कहते हैं ।
यह अख्यातिवादियोंका कथन भी अविचारित ही है, क्योंकि यदि इस ज्ञानमें कुछ भी प्रतिभासमान नहीं होता तो 'यह चाँदी है' इस रूपमें उसका कथन कैसे किया जा सकता है ? दूसरे फिर यह अख्याति है क्या वस्तु-रुपातिके अभावका नाम अख्याति है अथवा ईषत् ख्यातिको अख्याति कहते हैं ? प्रथम पक्ष में भ्रान्तिमें और सुप्तावस्थामें कोई भेद नहीं रहेगा क्योंकि भ्रान्तिमें सुप्तावस्थासे यही भेद होता है कि भ्रान्ति एक ज्ञानविशेषरूप होती है जब कि सुप्तावस्थामें यह बात नहीं होती। यदि भ्रान्तिको भो ज्ञानविशेषरूप नहीं माना जायेगा तो दोनों समान हो जायेंगे । दूसरे पक्षमें ख्यातिके ईषत्पनेसे क्या अभिप्राय है ? यदि जो अर्थ जिस रूपमें अवस्थित है उसका उस रूपमें प्रतिभास न होनेका नाम ईषत्ख्याति अथवा अख्याति है तो यह तो विपरीतार्थख्याति हुई, न कि अख्याति । अतः अख्याति पक्ष भी समुचित नहीं है। ३. असत्ख्यातिवाद
बौद्धदर्शनकी सौत्रान्तिक और माध्यमिक शाखाके अनुयायी विपर्ययज्ञानको असत्ख्यातिवाद मानते हैं। उनका कहना है-सोप में 'यह चांदो है' इस प्रकार जो वस्तुस्वरूप प्रतिभासित होता है वह ज्ञानका धर्म है अथवा अर्थका ? ज्ञानका धर्म तो वह हो नहीं सकता; क्योंकि उसकी प्रतीति अहंकारके रूपमें न होकर बाहरमें 'यह' इस रूपसे होती है तथा अर्थका भी धर्म नहीं है; क्योंकि उसके द्वारा जो काम होना चाहिए वह नहीं होता। इसके सिवा उत्तर काल में होनेवाले
१. न्या० कु० च०, पृ० ६० । प्रमेयक० मा०, पृ० ४८ । २. न्या० कु०, पृ. ६० ।।
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