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जैन न्याय
जान सकता तो वह अन्यके साथ एकत्वाध्यवसायकी बातको कैसे जान सकता है ? अतः प्रत्यक्षके साथ एकत्वाध्यवसायका नाम भी स्मृतिप्रमोष नहीं हो सकता। ___ स्मृतिका प्रत्यक्षरूप होना भी स्मृतिप्रमोष नहीं हो सकता क्योंकि ऐसा होनेपर जब स्मृति स्मृतिरूपको छोड़कर प्रत्यक्ष रूप हो जायेगी, स्मृतिरूप नहीं रहेगी, तब उसे कैसे स्मृतिका प्रमोष कहा जा सकता है ? यदि कहा जाये कि 'वह चाँदी' इस प्रकारकी प्रतीतिका नाम स्मृति है। यहाँ जो 'वह' शब्द है वह पहले जाने गये अर्थको कहता है जो इस समय परोक्ष है । जहाँपर इस 'वह' शब्दका अनुभव नहीं होता वहाँ स्मृतिका प्रमोष कहा जाता है। किन्तु यह भी समुचित नहीं है, क्योंकि स्मृतिप्रमोषवादी मीमांसक 'वह चाँदो' इसको एक ही स्मरण मानता है । उसमें-से 'वह' शब्दका प्रमोष होनेपर 'चांदी' शब्दका भी प्रमोष होना चाहिए; क्योंकि निरंश ज्ञानका एक देशसे प्रमोष नहीं हो सकता। अतः 'वह' की तरह चांदीका भी अनुभव नहीं हो सकेगा। ___अब रहा तिरोभाव, अर्थात् स्मृतिके तिरोभावको स्मृतिप्रमोष कहते हैं । यह तिरोभाव भी ज्ञानका योगपद्य सिद्ध होनेपर ही सिद्ध हो सकता है। किन्तु मीमांसक ऐसा मानते नहीं हैं कि एक साथ दो ज्ञान हो सकते हैं। तब तिरोभावकी बात भी नहीं बनती। यदि तिरोभावको मान भी लिया जाये तो प्रश्न होता है कि स्मृतिके तिरोभावसे आपका क्या अभिप्राय है-अपना काम न करना, स्मृतिका आवृत होना अथवा उसके स्वरूपका अभिभूत होना ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि स्मतिका कार्य है जानना, सो 'यह चांदी' इस ज्ञानके होते हुए चांदीका ज्ञान हो ही रहा है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि चिरस्थायी पदार्थ हो आवृत देखा जाता है, ज्ञान तो चिरस्थायी देखा नहीं जाता और न यह आपको इष्ट ही है। तीसरा पक्ष भी ठीक नहीं है । बलवान्के द्वारा दुर्बलके स्वरूपका अभिभव देखा जाता है, जैसे सूर्यसे तारागणोंका । अब प्रश्न यह होता है कि स्मृति दुर्बल है तो क्यों है ? उसका विषय अतीत होता है इसलिए, अथवा वह बाध्यमान होती है इसलिए । प्रथम पक्षमें स्मृतिका ही उच्छेद हो जायेगा; क्योंकि सभी स्मृतियोंका विषय अतीत ही होता है अतः सभी स्मृतियाँ दुर्बल कहलायेंगी। और उस अवस्थामें प्रत्यक्ष ज्ञानके द्वारा उनके स्वरूपका अभिभव होनेका प्रसंग उपस्थित होगा। दूसरे पक्षमें स्मृतिको बाध्यमानता विपरीत ख्यातिको माने बिना बन नहीं सकती। अतः स्मृतिप्रमोषके आग्रहको छोड़कर विपरीतख्याति ही मानना चाहिए। इसलिए विपरीत ज्ञानके विषयमें प्रभाकर मतानुयायियोंका विवेकाख्याति अथवा स्मृतिप्रमोष पक्ष समुचित नहीं प्रतीत होता ।
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