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________________ प्रमाण ७० विनाशको स्मृतिप्रमोष कहते हैं या स्मृतिका प्रत्यक्षके साथ एकत्वाध्यवसाय होना स्मृतिप्रमोष है, अथवा स्मृतिका प्रत्यक्ष रूप होना स्मृतिप्रमोष है, अथवा 'वह' इस अंशका अनुभव नहीं होना स्मृतिप्रमोष है, अथवा स्मृतिके तिरोभावका नाम स्मृतिप्रमोष है ? ____ यदि स्मृतिके विनाशका नाम स्मृतिप्रमोष है तो जब धूमको देखकर अग्निको जान लेते हैं तब धूम और अग्निके सम्बन्धका स्मरण विनष्ट हो जाता है, यह भी स्मृतिप्रमोष कहा जायेगा। यदि प्रत्यक्षके साथ स्मृतिके एकत्वाध्यवसायको स्मृतिप्रमोष कहते हैं तो प्रश्न होता है कि दोनोंका एकत्वाध्यवसाय हुआ कैसे-- विषयका एकत्वाध्यवसाय होनेसे अथवा स्वरूपका एकत्वाध्यवसाय होनेसे ? प्रथम पक्षमें यह विषयकत्वाध्यवसाय क्या है-यदि एकके विषयका दूसरे में आरोप करनेका नाम एकत्वाध्यवसाय है तो प्रत्यक्षके विषयका स्मृतिके विषयमें आरोप होता है या स्मृति के विषयका प्रत्यक्षके विषयमें आरोप होता है ? यदि प्रत्यक्षके विषयका स्मृतिके विषयमें आरोप होता है तो स्मृतिका विषय तो पहले देखी हुई चाँदी है। अतः जिस देशमें उस चाँदीको देखा था वहींपर सीपका स्पष्ट प्रतिभास होना चाहिए, न कि 'यह' इस उल्लेखके साथ सामने; क्योंकि जहाँपर जिसका आरोप होता है उसका प्रतिभास उसी देशमें होता है, जैसे मरीचिकामें आरोपित जलका प्रतिभास मरीचिका देशमें ही होता है। इसी तरह आप स्मृतिके विषयभूत चांदीमें प्रत्यक्षके विषयभूत सीपका आरोपण करते हैं । अतः उसका प्रतिभास वहीं होना चाहिए। दूसरे पक्षमें अर्थात् यदि स्मृतिके विषयका प्रत्यक्षके विषयमें आरोप होता है तो 'यह' इस रूपसे सीपका स्पष्ट प्रतिभास नहीं होना चाहिए, क्योंकि सोपमें आरोपित जो स्मृतिका विषय है, वह अस्पष्ट है । अतः विषयका एकत्वाध्यवसाय होनेसे तो स्मृतिका प्रत्यक्षके साथ एकत्वाध्यवसाय नहीं बनता। ___ स्वरूपका एकत्वाध्यवसाय होनेसे भी नहीं बनता; क्योंकि उसमें यह प्रश्न पैदा होता है कि वह स्वरूपैकत्वाध्यवसाय कोई दूसरा करता है अथवा स्मृति और प्रत्यक्ष ही करते हैं ? स्मृति और प्रत्यक्ष तो कर नहीं सकते; क्योंकि जो स्मृति और प्रत्यक्ष अ-स्वसंविदित स्वभाव होने के कारण अपने स्वरूपका भी अध्यवसाय करनेमें असमर्थ हैं वे अन्यके साथ एकत्वाध्यवसाय कैसे कर सकते हैं ? इसी तरह कोई दूसरा ज्ञान भी उनका एकत्वाध्यवसाय नहीं कर सकता; क्योंकि वह भी अ-स्वसंविदित स्वभाव ( अपनेको न जान सकनेवाला; क्योंकि मीमांसक ज्ञानको स्वसंवेदी नहीं मानते ) होनेके कारण जब अपने स्वरूपमात्रको भी नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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