________________
जैन न्याय
__अथवा', यदि ये दो ज्ञान हैं तो इनकी उत्पत्ति एक साथ होती है या क्रमसे ? एक साथ दो ज्ञान नहीं उत्पन्न हो सकते, अन्यथा ज्ञानोंके योगपद्यका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा। तथा मीमांसकोंकी मान्यता-इन्द्रियोंमें क्रमसे ही ज्ञानको उत्पन्न करनेको सामर्थ्य है-उसको भी क्षति पहुँचेगी। यदि दोनों ज्ञान क्रमसे उत्पन्न होते हैं तो 'यह' इस प्रत्यक्ष ज्ञानसे पहले चाँदीका स्मरण होता है, अयवा बादमें ? प्रथम पक्ष ठीक नहीं है; क्योंकि 'यह' इस प्रत्यक्ष ज्ञानके होनेसे पहले स्मरणका बोज जो संस्कार है, उस संस्कारका प्रबोधक कोई कारण हो नहीं है, जिससे पहले देखी चाँदीका स्मरण हो आये । और पूर्व संस्कारके प्रबुद्ध होनेपर ही स्मृति होती है, उसके बिना नहीं होती।
- वादी-'यह' इस सविकल्पक ज्ञानसे पहले होनेवाले निर्विकल्पक ज्ञानसे संस्कारका प्रबोध होता है।
जैन-तब तो निर्विकल्पकके बाद ही 'यह' सविकल्पक ज्ञान उत्पन्न होगा और उसी समय चांदोको स्मृति होनेसे ज्ञानोंके योगपद्यका प्रसंग उपस्थित हो जायेगा।
दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि 'यह' इस प्रत्यक्ष ज्ञानके पश्चात् उत्पन्न होने वाला चाँदीका ज्ञान चक्षुब्यापारके रुक जानेपर भी उत्पन्न हुआ कहलाया। ऐसी स्थितिमें आँखें बन्द कर लेनेपर भी 'यह चाँदी है' ज्ञानका अनुभव होना चाहिए। तथा यह क्रम प्रतीतिविरुद्ध भी है; क्योंकि पहले सामने पड़ी हुई सीपको ग्रहण करके पीछे 'मैं चाँदीका स्मरण करता हूँ' इस तरह स्वप्नमें भी दोनों ज्ञानोंके क्रमकी प्रतीति नहीं होती। सबको यही प्रतीति होती है कि सामने पड़ी हुई वस्तु एकदम चांदी रूपसे प्रतिभासित होती है। अन्यथा उत्तर कालमें उस ज्ञानके बाधक कारणोंके उपस्थित होनेपर 'यह चाँदी नहीं है' इस प्रकार जो तादात्म्य रूपसे चाँदीका प्रतिषेध किया जाता है वह नहीं होना चाहिए; क्योंकि आपके कथनानुसार तो वह अतीत चाँदीका स्मरण है। किन्तु लोकमें देखा जाता है कि सीपकी ओर अंगुलीसे निर्देश करके यह कहा जाता है कि यह चांदी नहीं है। अतः सामने पड़ी हुई सीपको जो चांदीरूपसे प्रतीति होती है वह सामने अवस्थित वस्तु-स्वरूपसे विरुद्ध होनेके कारण विपरीतख्याति है, स्मृतिप्रमोष नहीं है । ___ अथवा स्मृतिप्रमोष भो हो, पर यह स्मृतिका प्रमोष है क्या ? स्मृतिके
१. न्या० कु०, पृ० ५७। २. वही, पृ० ५८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.