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________________ प्रमाण ८५ है किन्तु वहाँ तो देशान्तरमें विद्यमान अर्थका प्रतिभास होता है। अतः विपरीतख्याति और असत्ख्यातिमें बहुत भेद है । शङ्का-जो चाँदी वहाँ नहीं है और न जिसका चक्षुके साथ सन्निकर्ष ही है उसका 'यह चांदी' इस रूपमें प्रतिभास कैसे होता है ? उत्तर-दोषके कारण देशान्तर और कालान्तरमें विद्यमान वस्तु भी निकट रूपसे ज्ञानका विषय हो सकती है। इसीसे तो इसे विपरीतख्याति कहते हैं । किन्तु ऐसा होनेसे विश्वको भी जान लेनेका प्रसंग उपस्थित नहीं होता; क्योंकि सदृश पदार्थ के दर्शनसे उद्भूत हुई स्मृतिके द्वारा उपस्थापित पदार्थ ही विपरीत ज्ञानका विषय होता है। और उपस्थापनका अर्थ है वित्तमें स्फुरायमान अर्थकी बाहरमें प्रतीति होना। किन्तु इतने मासे इसे आत्मख्याति अथवा असत्ख्याति नहीं कहा जा सकता; क्योंकि ज्ञानसे भिन्न अर्थका यहाँ प्रतिभास होता है इसलिए इसे आत्मख्याति नहीं कहा जा सकता और अत्यन्त असत् अर्थका प्रतिभास नहीं होता, इसलिए इसे असत्ख्याति नहीं कहा जा सकता। शङ्का-'यह चाँदी है' यह ज्ञान तो प्रत्यक्ष रूप है। उसमें, स्मृतिको कोई अपेक्षा नहीं है, अतः स्मृति के द्वारा उपस्थापित अर्थका प्रतिभास इसमें कैसे हो सकता है ? उत्तर-यह ज्ञान प्रत्यक्ष रूप नहीं है, किन्तु प्रत्यभिज्ञान रूप है। इसमें पहले देखी हुई और वर्तमानमें दृश्य वस्तुका जोड़ रूप ज्ञान होता है । जैसे 'यह वही देवदत्त है।' और प्रत्यभिज्ञानमें दर्शन और स्मरण दोनों कारण होते हैं । इस. लिए इसमें स्मृति की अपेक्षा होना उचित ही है। शायद कहा जाये कि सीपमें 'यह चाँदो है' इस प्रकारके ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान कहना सिद्धान्तविरुद्ध है; किन्तु ऐसी बात नहीं है। आगे बतलाया जायेगा कि 'यह वृक्ष है' इत्यादि ज्ञान भी प्रत्यभिज्ञान ही है। ___अतः स्मृति के द्वारा उपस्थापित चाँदी इस ज्ञानका आलम्बन है अथवा अपने आकारको छिपाकर चाँदीका आकार धारण करनेवाली सीप ही इसका आलम्बन है; क्योंकि उस समय सीपका त्रिकोण आदि विशिष्ट आकार तो दृष्टिगोचर नहीं होता और चमक आदि जो धर्म चाँदी और सीपमें समान हैं, उनपर दृष्टि पड़ते ही पहले देखी हुई चांदोका स्मरण हो आता है । अतः अपने आकारको छिपाकर चाँदोका आकार धारण करनेवाली सीप इस ज्ञानका आलम्बन है । शङ्का-चाँदोको ग्रहण करनेवाले ज्ञानका आलम्बन सीप कैसे हो सकती है ? समाधान-अंगुलि वगैरहसे जिस वस्तुकी ओर निर्देश किया जाता है, वही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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