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________________ जैन न्याय ज्ञानका आलम्बन होता है । सीपको चाँदीके रूप में जाननेवालोंका संकेत 'यह चांदी' इस तरह सामने पड़ी हुई सीपकी ओर ही होता है। बिना सीप-जैसी वस्तुके इस प्रकारका ज्ञान हो नहीं सकता। अत: इस ज्ञानमें विषय रूपसे सीपको अपेक्षा होती है । सीप और चांदी में समान रूपसे पाये जानेवाले चमकते हुए सफेद आकारको लेकर ही यह विपरीत ज्ञान होता है । अत: इसे विपरीतख्याति हो कहना उचित है। इसीसे ऐसे ज्ञानको अप्रमाण माना है। अतः जो ज्ञान संशय, विपर्यय आदिसे रहित होता है वही प्रमाण है । इस तरह जैनदर्शनमें अज्ञानरूप सन्निकर्ष आदि और उसीके समकक्ष निर्विकल्पक ज्ञान भी प्रमाण नहीं हैं । उन्हें यदि प्रमाण माना जा सकता है तो उपचारसे ही प्रमाण माना जा सकता है; क्योंकि परम्परासे ये सब सविकल्पक ज्ञानकी उत्पत्तिमें कारण होते हैं । अतः मुख्यरूपसे तो ज्ञान ही प्रमाण है। साकार ज्ञानवादकी समीक्षा पूर्वपक्ष-सौत्रान्तिक मतावलम्बी बौद्धका कहना है कि यह तो ठीक है कि ज्ञान अर्थका ग्राहक होता है; किन्तु विचारणीय यह है कि वह सम्बद्ध अर्थका ग्राहक है अथवा असम्बद्ध अर्थका ? असम्बद्ध अर्थका ग्राहक तो हो नहीं सकता. क्योंकि ऐसा होनेसे ज्ञान सभी अर्थोंका ग्राहक हो जायेगा। यदि सम्बद्ध अर्थका ग्राहक है तो यह प्रश्न होता है कि ज्ञान और अर्थका कौन सम्बन्ध है - तादात्म्य सम्बन्ध है अथवा तदुत्पत्ति सम्बन्ध है ? तादात्म्य सम्बन्ध माननेसे तो विज्ञानाद्वैतवादो योगाचारका मतानुयायी होना पड़ेगा, क्योंकि योगाचारके मतसे विज्ञान ही परमार्थ सत् है और बाह्य पदार्थ स्वप्नके समान हैं। तथा ज्ञान और अर्थ चूंकि समकालीन होते हैं, इसलिए उनमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध भी नहीं हो सकता, क्योंकि एक गायके एक साथ पैदा होने वाले दोनों सींगोमें जैसे कार्यकारण भाव नहीं होता वैसे ही समान समयवर्ती दो पदार्थों में कार्यकारणभाव नहीं हो सकता । यदि ज्ञान और अर्थको भिन्न समयवर्ती माना जायेगा तो अर्थ के नष्ट हो जानेपर बिना आकारके अर्थका ग्रहण कैसे हो सकता है ? यही बात धर्मकीर्तिने अपने प्रमाणवार्तिकमें कही है - "भिन्नकालं कथं ग्राह्यमिति चेद् ग्राह्यतां विदुः । हेतुत्वमेव युक्तिज्ञाः तदाकारार्पणक्षमम् ॥" १. न्या. कु० च०, पृ० १६५ | प्रमेयक० मा०, पृ० १०३-११० । २. प्रमाणवा०, ३।२४७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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