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प्रमाण
बौद्ध दर्शनमें प्रत्येक अर्थ क्षणिक है । अतः प्रथम क्षणमें तो अर्थ उत्पन्न ही होता । दूसरे क्षण में वह ज्ञानको उत्पन्न करता है । किन्तु ऐसा होनेसे कारणभूत अर्थका कार्यभूत ज्ञानके होनेपर अभाव हो जाता है, क्योंकि वह क्षण स्थायी है ऐसी स्थिति में यह आशङ्का होती है कि वह अर्थ ज्ञानके द्वारा कैसे ग्राह्य हो सकता है ? उसीका समाधान करते हुए बतलाया है कि जिस क्षण में किसी वस्तु के साथ हमारी इन्द्रियोंका सम्पर्क होता है उस क्षणमें वह वस्तु अतीत के गर्भमें चली जाती है । केवल तज्जन्य ज्ञान शेष रहता है । प्रत्यक्ष होते ही वस्तुके नील पोत आदि आकार चित्तपर अंकित हो जाते हैं । इन आकारोंको ही ज्ञान जानता है । अतः बौद्धों का कहना है कि चूँकि ज्ञान अर्थसे उत्पन्न होता है, इसलिए उसे अर्थके आकार ही मानना चाहिए। तथा यह नियम है कि जो जिसका ग्राहक होता है वह उसके आकार होता है । जैसे स्वरूपका ग्राहक ज्ञान स्वरूपके आकार होता है वैसे ही नील आदि अर्थका ग्राहक ज्ञान नील आदि आकार होता है । और जो जिसके आकार नहीं होता वह उसका ग्राहक भी नहीं होता । जैसे शुक्लज्ञान नीलका ग्राहक नहीं होता, क्योंकि वह उसके आकार नहीं है । किन्तु ज्ञान अर्थका ग्राहक होता है, इसलिए उसे अर्थकार मानना चाहिए ।
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यदि ज्ञानको निराकार माना जायेगा तो उसके स्वरूपका भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा; क्योंकि जब ज्ञान उत्पन्न होता है तो 'यह नील है', 'यह पीत हैं' इत्यादि आकार रूपसे उसकी प्रतीति होती है । इन आकारोंके अभाव में ज्ञानका प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? तथा निराकार माननेपर ज्ञानोंका परस्परमें भेद भी दुर्लभ हो जायेगा। क्योंकि नील आदि आकार ही एक ज्ञानको दूसरे ज्ञानसे भिन्न करते हैं, उनके अभाव में किससे किसे भिन्न किया जायेगा ? अतः जिसके कारण 'यह नीलका ज्ञान है', 'यह पीतका ज्ञान है, इस प्रकार प्रत्येक ज्ञानका विषय नियत होता है, वही अर्थाकारता इस क्रिया में साधकतम होनेसे प्रमाण है, और वही एक ज्ञानसे दूसरे ज्ञानको भिन्न करती है । यदि अर्थाकारताको नहीं माना जायेगा तो 'नीलका यह ज्ञान है' इस प्रकार ज्ञानका अर्थके साथ सम्बन्ध घटित नहीं हो सकता और उसके न होनेसे सब पदार्थोंके प्रति समान होनेके कारण निराकार ज्ञानमें वह व्यवस्था कैसे बनेगी कि अमुक ज्ञानका अमुक ही विषय है ? और इस व्यवस्थाके अभाव में अर्थक्रियार्थी ज्ञाता पुरुषको नियत अर्थमें प्रवृत्ति कैसे हो
१. प्रमाणवा० अलं० पृ० २ ।
२. प्रमाणस० . का ० १० । प्रमाणवा० अलं०, पृ० ११६ |
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