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जैन न्याय
सकेगी, क्योंकि निराकार होनेसे उसका ज्ञान सभी पदार्थों के प्रति समान है। इसीसे धर्मकीतिने प्रमाणवातिकमें कहा है
"अर्थेन घटयत्येनां न हि मुक्त्वार्थरूपताम् ।
तस्मात् प्रमेयाधिगतेः प्रमाणं मेयरूपता ॥"' अर्थात् अर्थाकारताको छोड़कर अन्य कोई ज्ञानको अर्थके साथ सम्बद्ध नहीं करता । अत: ज्ञानको अर्थाकारता ही प्रमाण है। शायद कहा जाये कि जैसे अर्थ ज्ञानका कारण है वैसे ही चक्षु आदि इन्द्रियाँ भी कारण हैं, अतः अर्थकी तरह चक्षु आदिके आकारका अनुकरण ज्ञानमें क्यों नहीं होता ? इसका उत्तर यह है कि जैसे पुत्रको उत्पत्ति में भोजन आदि भी कारण है, किन्तु पुत्र भोजनके आकारका अनुकरण न करके माता-पिताके ही आकारका अनुकरण करता है, वैसे ही ज्ञान भी अर्थके आकारका ही अनुकरण करता है, चक्षु आदिका नहीं । अतः ज्ञानको साकार मानना चाहिए।
उत्तर पक्ष-जैनोंका कहना है कि यद्यपि ज्ञान सम्बद्ध अर्थका ही ग्राहक है, किन्तु ज्ञान और अर्थमें तदुत्पत्ति सम्बन्ध नहीं है, बल्कि योग्यता लक्षण सम्बन्ध है। उस सम्बन्धके ही कारण ज्ञान समकालीन अथवा भिन्नकालीन अर्थको ग्रहण करता है। अतः 'भिन्न कालमें ग्राह्य-ग्राहक भाव कैसे बनता है' यह कथन असंगत है। यहाँ इतना और भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैन दर्शन बौद्धों. के निर्विकल्पक ज्ञानको तो स्वीकार ही नहीं करता। अत: प्रवृत्ति और निवृत्तिमें कारण जिस सविकल्पक ज्ञानका अनुभव बालकसे लेकर वृद्ध तकको होता है, उसीको जैन दर्शन निराकार सिद्ध करता है। किसी भी मनुष्यको यह अनुभव नहीं होता कि सब ज्ञान अपने आकारको ही जानते हैं बल्कि अपनेसे भिन्न पदार्थके अभिमख होकर ही वे पदार्थों को जानते हैं। यही लौकिकी प्रतीति है; और लोकव्यवहारका उल्लंघन करनेसे पदार्थकी व्यवस्था हो नहीं सकती । अन्यथा धर्मकीर्तिका 'प्रामाण्यं व्यवहारेण' कथन असंगत ठहरेगा। तथा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे भी विरोध आयेगा; क्योंकि प्रत्यक्षसे तो प्रत्येक पुरुषको आकाररहित ज्ञानका ही अनुभव होता है न कि दर्पणको तरह साकार ज्ञानका । अतः जो जिसके द्वारा अपनेसे भिन्न जाना जाता है वह उसके द्वारा अतदाकार रूपसे ही जाना जाता है। जैसे स्तम्भकी जड़ताको ज्ञान जड़रूप होकर नहीं जानता । ज्ञान अपनेसे भिन्न नील आदि पदार्थों को जानता है। अतः ज्ञान निराकार है ।
१. प्रमाणवा०, ३१३०५ । २. न्या० कु० च०, पृ० १६७ । प्रमेयक० मा०, पृ० १०३-११० ।
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