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________________ ७२ जैन न्याय सन्तानसे भिन्न है । अत: विजातीय निर्विकल्पक दर्शनसे विजातीय विकल्पकी उत्पत्ति होना हमें इष्ट नहीं है। जैन-यह कथन भी संगत नहीं है। यदि निर्विकल्पक दर्शन विकल्पको उत्पन्न नहीं करता तो बौद्ध दर्शनमें ऐसा क्यों कहा है - “यत्रैव जनयेदेनां तत्रेवास्य प्रमाणता।" अर्थात्-जिस विषयमें निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सविकल्पक बुद्धिको उत्पन्न करता है उसी विषयमें वह प्रमाण है । आपके उक्त कथनसे इस मान्यतामें विरोध आता है । अतः जब सविकल्पक बुद्धिको उत्पन्न करनेपर ही निर्विकल्पकका प्रामाण्य अभीष्ट है तो सविकल्पकको ही प्रमाण क्यों नहीं मान लेते। क्योंकि वह संवादक है, अर्थकी परिच्छित्तिमें साधकतम है, अनिश्चित अर्थका निश्चायक है और ज्ञाता उसोको अपेक्षा करता है। निर्विकल्पमें ये बात नहीं हैं अतः वह सन्निकर्षकी तरह प्रमाण नहीं हो सकता। हां, यदि 'गृहीतग्राही होनेसे सविकल्पकको अप्रमाण मानते हैं तो अनुमान भी अप्रमाण ठहरता है; क्योंकि व्याप्तिज्ञान और योगिप्रत्यक्ष से गृहीत अर्थको अनुमान ग्रहण करता है तथा क्षणिकत्वको सिद्ध करनेवाला अनुमान भी ऐसी स्थितिमें कैसे प्रमाण हो सकता है; क्योंकि जिस समय यह कहा जाता है-'सर्व क्षणिक सत्त्वात्--' सब पदार्थ क्षणिक हैं क्योंकि सत् है; उसी समय ये शब्द श्रोत्रेन्द्रियजन्य प्रत्यक्षके विषय हो जाते हैं और उसी प्रत्यक्षके द्वारा जाने गये क्षणिकत्वको अनुमान प्रमाण विषय करता है। अतः वह भी गृहीतग्राही है । यदि कहा जाये कि वह प्रत्यक्ष तो केवल शब्दको ही ग्रहण करता है उसके क्षणिकत्व धर्मको ग्रहण नहीं करता तो एक ही वस्तुका ग्रहण और अग्रहण होनेसे शब्द रूप धर्मीसे उसका क्षणिकत्व धर्म भिन्न हो जायेगा। और ऐसा होनेसे शब्द अक्षणिक ठहरेगा। अत: सविकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है।' जैसे संशय ज्ञान, विपरीतज्ञान आदि मिथ्याज्ञान भी यद्यपि ज्ञान हैं, फिर भी ज्ञान होने मात्रसे ही उन्हें प्रमाण नहीं माना जा सकता; क्योंकि वे समीचीन व्यवहारमें अनुपयोगी हैं, उनके द्वारा किसीको भी वस्तुका सम्यग्ज्ञान नहीं होता। इसी तरह बौद्धोंका निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी यद्यपि ज्ञानरूप है, किन्तु ज्ञानरूप होनेमात्रसे ही उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि अन्य मिथ्याज्ञानोंकी तरह वह भी संव्यवहारमें अनुपयोगी है। १. वही०, पृ० ३७। २. न्यायकु०, पृ० ५२ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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