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प्रमाण
मिथ्याज्ञानके तीन भेद हैं'-संशयज्ञान, विपर्ययज्ञान और अनध्यवसाय । किसी पदार्थके देखनेपर यह पदार्थ स्थाणु (ठूठ ) है अथवा मनुष्य है, इस प्रकार अनेक अर्थोंका आलम्बन लेनेवाले अनिश्चित ज्ञानको संशयज्ञान कहते हैं । स्थाणुको पुरुष समझ लेना अथवा सीपको चाँदी या चांदीको सीप समझ लेना विपर्ययज्ञान है । दस विपर्ययज्ञानको लेकर भारतीय दार्शनिकोंमें बहुत मतभेद है। कोई इसे विवेकाख्याति कहता है तो दूसरे अख्याति, असत्ख्याति, प्रसिद्धार्थख्याति, आत्मख्याति, सदसत्त्वाद्यनिर्वचनीयार्थख्याति, विपरीतार्थख्याति, और अलौकिकार्थख्याति के रूपमें मानते हैं । जैन दार्शनिक प्रभाचन्द्राचार्य आदिने इनकी आलोचना को है । उसका सार यह है
विपर्ययज्ञान १. विवेकाख्याति
पूर्व पक्ष-मीमांसक प्रभाकरके अनुयायी विपर्ययज्ञानमें विवेकाख्यातिको स्वीकार करते हैं। उनका कहना है-सीपमें 'यह चाँदी है' यह एक ज्ञान नहीं है, किन्तु ये दो ज्ञान हैं । इनमें एक प्रत्यक्ष ज्ञान है, दूसरा स्मरणज्ञान है । क्योंकि इन दोनों ज्ञानोंके कारण भी भिन्न-भिन्न हैं और विषय भी भिन्न-भिन्न हैं। 'यह' प्रत्यक्षज्ञान है, उसका कारण इन्द्रिय है। और 'चांदी' स्मरणज्ञान है, उसका कारण संस्कार है । तथा 'यह' इस ज्ञान का आलम्बन सामने पड़ी हुई सीप है और 'चांदो' इस ज्ञानका आलम्बन पहले देखी हुई चाँदी है। अतः भिन्न विषय और भिन्न कारण होनेसे 'यह चांदी है' यहां दो ज्ञान ही मानना चाहिए। विशेष इस प्रकार है-'यह' सामने पड़े हुए अर्थको ग्रहण करनेवाला प्रत्यक्षज्ञान है और 'चांदी' यह पहले देखी हई चांदोका स्मरण है, क्योंकि चांदीके ज्ञानका विषय चांदी ही हो सकती है, सीप नहीं। अन्याकार प्रतीतिका विषय अन्य नहीं हो सकता। यदि ऐसा हो तो सब ज्ञानोंका विषय सब पदार्थ हो जायेंगे। अतः यहाँ 'चाँदी' इस ज्ञानका विषय चाँदो ही है; किन्तु चांदो सामने मौजूद नहीं है अत; सीपको देखकर पहले देखी हुई चाँदीका ही स्मरण हो आता है। ___शंका-यदि पहले देखी हुई चाँदीका स्मरण हुआ मानते हैं तो अतीत वस्तुका स्मरण तो अतीत रूपसे ही होना चाहिए, सामने चांदी पड़ी है इस तरह वर्तमान रूपसे तो नहीं होना चाहिए ।
१. मिथ्याज्ञानत्वेऽपि संशयविपर्ययानध्यवसायात्मक स्यात्-तत्त्वार्थवा०, पृ० ४४ । २. अनेकार्थानिश्चितापयुदासात्मकः संशयः । तत्त्वा० वा०, पृ० ४३ । ३. बृह० टी०, पृ० ५१ । प्रकरण मं०, पृ० ४३ ।
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