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प्रमाण
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सांख्योंका खण्डन नहीं करना चाहिए। क्योंकि जैसे निर्विकल्पक और सविकल्पककी भिन्न-भिन्न प्रतीति नहीं होनेपर भी बौद्ध दोनोंको दो जुदा ज्ञान मानता है, वैसे ही बुद्धि और चैतन्यमें भेदप्रतीति नहीं होनेपर सी सांख्य उन्हें भिन्न मानता है। शायद बौद्ध कहें कि निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञानमें एकताका अध्यवसाय होनेसे भेदकी प्रतीति नहीं होती, तो यह बात तो सांख्य भी कह सकता है।
जैसे आगको और बच्चेको अलग-अलग जानकर बच्चेमें आगकी-सी तेजस्विता देखकर दोनोंका एकत्वाध्यवसाय कर दिया जाता है कि यह बच्चा तो आग है । वैसे ही यदि निर्विकल्पक और सविकल्पक ज्ञानका स्वरूप अलग-अलग अनुभवमें आये तो एक दूसरेका अध्यारोप करके एकत्वाध्यवसाय करना उचित है, किन्तु सविकल्पक और निर्विकल्पकका बोध कहींपर कभी किसीको नहीं होता। फिर इन दोनोंका एकत्वाध्यवसाय करेगा कौन ? इन्हीं दोनों में से कोई एक अथवा कोई तीसरा? यदि इन्हीं दोनोंमें से कोई एक ज्ञान दोनोंका एकत्वाध्यवसाय करता है तो वह सविकल्पक अथवा निर्विकल्पक है ? निर्विकल्पकसे तो यह काम हो नहीं सकता; क्योंकि वह विचारक नहीं है। और न सविकल्पक ही इस कामको कर सकता है; क्योंकि निर्विकल्पक ज्ञान उसका विषय नहीं है । और जो जिसको विषय नहीं करता वह किसीके साथ उसका एकत्वाध्यवसाय नहीं कर सकता। जैसे घटका ज्ञान परमाणुको नहीं जानता, अतः वह परमाणुके साथ घटका एकत्वाध्यवसाय नहीं कर सकता। उसी तरह निर्विकल्पकज्ञान सविकल्पकका विषय नहीं है। यदि निर्विकल्पकज्ञान सविकल्पकज्ञानका विषय हो जायेगा तो सविकल्पकज्ञान भी 'स्वलक्षण'को विषय कर सकेगा। यदि इन दोनोंको छोड़कर किसी तीसरे ज्ञानसे दोनोंका एकत्वाव्यवसाय माना जायेगा, तो वह ज्ञान भी या तो सविकल्पक होगा या निर्विकल्पक । अतः वह भी दोनोंका एकत्वाध्यवसाय नहीं कर सकता । इसलिए यदि प्रतीतिके अनुसार ही वस्तुकी व्यवस्था करना चाहते हो तो अनुभव सिद्ध और 'स्व' तथा अर्थका निश्चय करनेवाला एक ही प्रत्यक्ष ज्ञान मानना चाहिए। वही अपना और परका निश्चय करानेवाला होनेसे सब व्यवहारोंका मूल है। हां, उसीका एक नाम निर्विकल्पक रखना चाहो तो उसमें हमें कोई आपत्ति नहीं है; क्योंकि नामभेद होनेसे अर्थभेद नहीं हो जाता।
जो स्वयं निर्विकल्पक है, वह विकल्पको कैसे उत्पन्न कर सकता है क्योंकि निर्विकल्पकपनेका और विकल्पको उत्पन्न करनेकी सामर्थ्यका परस्परमें विरोध है। यदि कहा जाये कि विकल्पवासनाकी अपेक्षा लेकर निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी विकल्प
१. न्यायकु०, पृ० ४८-५० । २. प्रमेयक० मा०, पृ० ३३ ।
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