________________
जैन न्याय
६८
स्वयं अपने स्वरूपका उपदर्शक होता है, उसे चेतन कहा जाता है । किन्तु निर्विकल्पक प्रत्यक्ष स्वप्न में भी दूसरेकी अपेक्षा न करके अपने स्वरूपका प्रदर्शन नहीं करता । अतः वह चेतन कैसे हो सकता है ? और चेतन न होनेसे उसमें और सन्निकर्ष में कोई अन्तर नहीं रहता । अतः यदि आप सन्निकर्ष से अपने निर्विकल्पक ज्ञानमें कुछ भेद रखना चाहते हैं तो उसे निश्चयात्मक मानना चाहिए । ऐसा माने बिना उसके स्वरूपका अनुभव नहीं हो सकता और स्वरूपका अनुभव हुए बिना सन्निकर्षसे निर्विकल्पक ज्ञान भिन्न सिद्ध नहीं हो सकता ।
बौद्ध - 'मैं देखता हूँ' इस प्रकारके विकल्पको उत्पन्न करना ही निर्विकल्पक प्रत्यक्षका व्यापार है तब वह निर्व्यापार कैसे है ?
जैन - यह भी ठीक नहीं है; ऐसा माननेसे तो निर्विकल्पक प्रत्यक्षको निश्चयात्मक मानना होगा। क्योंकि आप ( बौद्ध ) व्यापारको व्यापारवान् से भिन्न नहीं मानते; क्योंकि व्यापार व्यापारवान्का स्वरूप है ।
बौद्ध — व्यापार व्यापारवान्का कार्य है अतः वह उससे भिन्न है ।
जैन -- यदि वह कार्य है, तो उसे व्यापारवान्का व्यापार नहीं कहा जा सकता; क्योंकि पिताका व्यापार पुत्र नहीं होता । यदि थोड़ी देर के लिए यह मान भी लिया जाये कि व्यापार व्यापारवान्का कार्य है फिर भी यदि निर्वि कल्पक प्रत्यक्ष स्वयं निश्चयात्मक नहीं है तो उससे उत्पन्न होनेवाले विकल्प में निश्चयात्मकता कैसे हो सकती है ? यदि कहा जाये कि विकल्प ज्ञानरूप है। अतः वह निश्चयात्मक होता है, तो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी ज्ञानरूप है अतः उसे भी निश्चयात्मक होना चाहिए। दोनोंके ज्ञानरूप होनेपर भी जो निर्विकल्पक प्रत्यक्ष साक्षात् रूपये स्वयं अर्थका ग्रहण करने में प्रवृत्ति करता है, वह तो अर्थका निश्चय नहीं करता, और जो उस निर्विकल्पकसे उत्पन्न होनेवाला विकल्प है वह अर्थका निश्चय करता है । यह तो वही कहावत हुई कि तलवार तीक्ष्ण नहीं है किन्तु उसका म्यान बहुत तीक्ष्ण है ।
किन्तु विकल्पक
निर्विकल्पसे विकल्पकज्ञानकी उत्पादक सामग्री विलक्षण है अतः विकल्पक निश्चयात्मक है, यह कहना भी ठीक नहीं; क्योंकि यह तो तभी सिद्ध हो सकता है जब निर्विकल्पक और सविकल्पकका भेद सिद्ध हो जाये । ज्ञान के सिवा निर्विकल्पकको प्रतीति तो स्वप्न में भी नहीं होती । हमें तो इन्द्रिय आदि सामग्री से उत्पन्न होनेवाले केवल एक ही ज्ञानकी प्रतीति होती है जो अपना और अर्थका निश्चय कराता है। फिर भी यदि निर्विकल्पक और सविकल्पकके भेदको माना जाता है, तब तो बौद्धों को बुद्धि और चैतन्यको भिन्न-भिन्न माननेवाले
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org