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प्रमाण
कि 'प्रमाण ज्ञान कथंचित् कल्पनारहित' है तो बौद्ध तो एकान्तवादी हैं, और ऐसा माननेसे एकान्तवादको छोड़कर अनेकान्तवाद स्वीकार करना होता है। अत: ऐसा मानने में भी बौद्धोंपर आपत्ति हो आती है । __आचार्य विद्यानन्दने अपने श्लोकवातिकमें तथा आचार्य प्रभाचन्द्रने न्यायकुमुदचन्द्र और प्रमेयकमलमार्तण्डमें कल्पनाके लक्षण 'अभिलापवती प्रतीति' को लेकर आलोचना की है। प्रभार्चन्द्राचार्यका कहना है कि बौद्ध निर्विकल्पक दर्शनको निश्चयात्मक नहीं मानते; क्योंकि निश्चय भी कल्पना ही है । ऐसी स्थितिमें वह प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि जो ज्ञान स्वयं अनिश्चयस्वरूप है और अर्थका भी निश्चय नहीं करता वह प्रमाण नहीं हो सकता। संशय आदिको दूर करके अर्थके स्वरूपका निर्णय करना ही निश्चय है। यह निश्चय प्रमाणका स्वरूप है; क्योंकि 'प्रकर्षण' अर्थात् संशय आदिको दूर करके 'मोयते' अर्थात् जिससे अर्थको जाना जाता है, उसे प्रमाण कहते हैं, यह प्रमाण शब्दको निरुक्ति है। यह बात निर्विकल्पक ज्ञानमें सम्भव नहीं है, तब उसे प्रमाण कैसे कहा जा सकता है। दूसरे निर्विकल्पक ज्ञान व्यवहारमें उपयोगो नहीं है। इससे भी वह प्रमाण नहीं हो सकता; क्योंकि जो ज्ञान व्यवहार में उपयोगी नहीं है वह प्रमाण नहीं है । जैसे चलते हुए मनुष्यको तृण आदिके स्पर्शसे होनेवाला ज्ञान । बौद्धोंका निर्विकल्पक ज्ञान भी इसीके तुल्य है । अतः वह प्रमाण नहीं हो सकता। बौद्धोंने यह स्वयं स्वीकार किया है कि व्यवहारके लिए ही प्रमाणको आवश्यकता है, किन्तु बौद्धोंका निवि. कल्पक ज्ञान व्यवहारका साधक नहीं है; क्योंकि वह न तो अपना निश्चय कर पाता है और न अर्थका निश्चय कर पाता है। अतः ऐसे निर्विकल्पक ज्ञानसे अनध्यवसाय आदि मिथ्याज्ञानोंकी तरह व्यवहारी मनुष्यको किसी विषयमें प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
बौद्ध-~-यद्यपि प्रत्यक्ष निर्विकल्पक है फिर भी वह अपने से भिन्न एक सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न करता है, अतः वह प्रवर्तक है और प्रवर्तक होनेसे प्रमाण है।
जैन-यह केवल श्रद्धामात्र है। इस तरहसे तो नैयायिकका सन्निकर्ष भी प्रमाण हो सकता है, और निर्विकल्पकमें और सन्निकर्षमें कोई भेद ही नहीं रहता। शायद यह कहा जाये कि सन्निकर्ष अचेतन होता है और निर्विकल्पक ज्ञान चेतन है, अतः उसमें और सन्निकर्षमें भेद है। किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि निर्विकल्पक प्रत्यक्ष चेतन नहीं हो सकता। जो दूसरेकी अपेक्षा न करके
१. पृ० १८५ । २. पृ० ४७ । ३. पृ० ४६ । ४. न्या० कु० च०, पृ० ४८ ।
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