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________________ जैन न्याय विकल्पके विषय विकल्प्यको एक मान बैठता है। अतः विकल्पको प्रमाण नहीं माना जाता। शंका-यदि उपर्युक्त कारणसे सविकल्पक ज्ञानको अप्रमाण माना जाता है तो अनुमानको भी प्रमाण नहीं मानना चाहिए; क्योंकि प्रत्यक्षसे गृहीत विषयमें ही अनुमानकी प्रवृत्ति होती है। . उत्तर-प्रत्यक्षसे उत्पन्न होनेपर भी जिस अंशमें वह सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न करता है वही अंश गृहीत कहा जाता है। और जिस अंशमें भ्रान्ति होनेसे सविकल्पक ज्ञानको उत्पन्न नहीं करता वह अंश गृहीत होनेपर भी अगृहीतके तुल्य होता है । उस अंशमें वर्तमान समारोपको दूर करनेके लिए अनुमानको प्रवृत्ति होती है। अत: अनुमान प्रमाण है, किन्तु प्रत्यक्षके अनन्तर होनेवाला सविकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है; क्योंकि वह वर्तमान समारोपको दूर करने में असमर्थ है। शंका-स्वलक्षण रूप वस्तुका अनुभव होनेपर भी उसका निश्चय क्यों नहीं होता? उत्तर-निश्चयकी उत्पत्तिके लिए अन्य कारणोंकी अपेक्षा होती है। अर्थात् केवल अनुभवके होनेसे ही निश्चय नहीं होता, उसके लिए अभ्यासकी, अथित्वकी और पाटव आदि कारणोंकी अपेक्षा आवश्यक होती है । अतः सविकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं है, किन्तु निर्विकल्पक ज्ञान ही प्रमाण है । . उत्तर पक्ष-बौद्धाचार्य कमलशीलने तत्त्वसंग्रहको टोका (पृ० ३९४)में लिखा है कि-'कुछ अपने ही पक्षके लोगोंको प्रत्यक्षके लक्षणमें 'अभ्रान्त' पद इष्ट नहीं है, क्योंकि पीत शंखका ज्ञान भ्रान्त होनेपर भी प्रत्यक्ष है।""इसीसे आचार्य दिग्नागने प्रत्यक्षके लक्षण में अभ्रान्तपद ग्रहण नहीं किया।' आशय यह है कि दिग्नागने 'कल्पनारहित ज्ञानको प्रत्यक्ष' माना है और धर्मकीर्तिने उसमें 'अभ्रान्त' पद बढ़ाकर 'कल्पनारहित अभ्रान्त ज्ञानको प्रत्यक्ष' माना है। जैनाचार्य अकलंकदेवने अपने तत्त्वार्थवार्तिक में दिग्नागके प्रत्यक्षके लक्षणकी आलोचना करते हए लिखा है-'प्रत्यक्ष सर्वथा कल्पनासे रहित है या कथंचित् कल्पनासे रहित है ? यदि वह सर्वथा कल्पनासे रहित है तो 'प्रमाण ज्ञान सर्वथा कल्पनारहित है' यह भी तो एक कल्पना ही है, इससे भी रहित होनेसे 'प्रमाण ज्ञान सर्वथा कल्पनारहित है' यह भी कह सकना सम्भव न होगा। और यदि वह इस कल्पनासे रहित नहीं है तो भी 'प्रमाण ज्ञान सर्वथा कल्पनारहित है' ऐसा कहना गलत है। यदि कहते हो १. तत्त्वार्थवा०, पृ० ३६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.002089
Book TitleJain Nyaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1966
Total Pages384
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Nyay, & Epistemology
File Size16 MB
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